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बाग़बान-सी ज़िंदगी

बुज़ुर्ग यशवंतजी व सुलोचना दोनों अपने बेटों के पास अलग-अलग रहकर अपनी ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे लेकिन आज दोनों ने फोन पर ही फ़ैसला कर लिया था कि उसी फ़ेवरेट पुराने कैफ़े हाउस में मिलकर साथ ही कॉफ़ी पियेंगे। 

सुलोचना ने यशवंत जी के पसंद की नीले रंग की साड़ी पहनी जो इस उम्र में उनके तजुर्बे और शांत स्वभाव की ख़ूबसूरती निखार रही थी दर्पण देख अपनी ही छवि से मुस्कराकर पर्स उठा कमरे से निकली और छोटी बहू को कह दिया, “मैं थोड़ी देर बाहर जाकर आ रही हूँ।”

अब टैक्सी कर कैफ़े हाउस पहुँची तो देखा वहाँ यशवंत जी पहले से ही पहुँच, बेसब्री से उनका इंतज़ार कर रहे थे। दोनों की आँखें एक-दूसरे को देखते ही नम हो गयीं। महीने भर बाद इस बार दोनों का मिलना हुआ था। वैसे तो बेटे महीने में एक-दो बार दोनों को मिलवा देते थे लेकिन इस बार दोनों बेटों के काम में फँसे होने के कारण वे एक-दूसरे के घर ना जा पाए, इसलिए इन दोनों का भी मिलना ना हो पाया। 

आँखों में पानी लिए यशवंत जी ने सुलोचना से कहा, “अब तो हमें वृद्धाश्रम में चले जाना चाहिए ताकि जीवन के कुछ अंतिम लम्हे हम साथ जी सकें।” 

उनकी यह बात सुन सुलोचना ने उनके मुँह पर हाथ रख दिया, “ऐसा कभी न कहना तीन बेटों के माँ-बाप होकर वृद्धाश्रम जाएँगे तो दुनिया बच्चों पर थू-थू करेगी।” 

यशवंत जी सुलोचना का हाथ पकड़ दुःखी मन से बोले, “मेरी पेंशन ना होने के कारण मैं बच्चों को ज़ोर देकर यह भी नहीं कह सकता कि दोनों का ख़र्च एक ही बेटा उठाये।” 

तभी सुलोचना ने छेड़ते हुए कहा, “कॉफ़ी पर बुलाया है पिलाओगे या यूँ ही वापस जाना होगा।”

यशवंत जी ने मुस्कुराते हुए वेटर को बुला एक शुगर फ़्री और दूसरी स्ट्रोंग हॉट कॉफ़ी का ऑर्डर दे दिया। 

कॉफ़ी आयी तब तक दोनों एक-दूसर की तबीयत पूछने में लग गए। सुलोचना कहने लगी, “पोते से अब चुपचाप आइसक्रीम लेकर तो नहीं खाते। शुगर बढ़ जाएगी।” 

यशवंत जी मुस्कुराये, “कभी-कभी; आदत है इतनी जल्दी कहाँ सुधरेगी।” 

कॉफ़ी ख़त्म करते ही सुलोचना बोली, “मैं तो थोड़ी देर का कहकर निकली थी। बहू इंतज़ार करती होगी।”

थोड़ी ही देर में दोनों अपने-अपने घर को चल दिए। 

सुलोचना मन ही मन दुःखी हो रही थी कि इस वृद्धावस्था में पति के पास रहकर उनका ख़्याल रखती लेकिन यशवंत जी के रिटायरमेंट के बाद बच्चों ने यही तय किया था कि पापा-मम्मी अलग-अलग महीने तीनों बेटों के यहाँ रहेंगे। बोझिल-सी सुलोचना टैक्सी से उतर घर में पहुँची तो बहू ने कहा, “मम्मी कहीं दूर तक चले गए थे क्या? चेहरे पर थकान है।”

सुलोचना ने सँभलकर, “हाँ” कह दिया और अपने कमरे की ओर बढ़ गई। मन ही मन यशवंत जी की वृद्धाश्रम की बात को लेकर चिंतित भी थी लेकिन उन्होंने रात भर करवटें बदलते-बदलते तय कर लिया था कि वह बहू बेटों से बात कर अब यशवंत जी के साथ ही तीनों बेटों के यहाँ बारी-बारी रहेगी। यह बाग़बान वाली ज़िन्दगी से वे दोनों अब ऊब चुके थे। सुबह होते ही उन्होंने अपने बड़े बेटे कुंदन से कहा, “मुझे ऑफ़िस जाते हुए चंदन के यहाँ छोड़ दे अब मैं व बाबू जी दोनों कुछ दिन चंदन के यहाँ साथ रहेंगे। फिर अंजन के यहाँ।”

कुंदन और बहू माँ के इस बदलाव को देख समझ गए थे कि कुछ न बोलने वाली माँ आज बाबूजी के बुढ़ापे में उनका साथ देना चाहती है। कुंदन और बहू की आँखों में पानी आ गया और बोले, “माँ हम अपनी ज़िन्दगी में इतने मशग़ूल हो गए कि आप दोनों के साथ के बारे में तो सोचा ही नहीं। माँ हमें क्षमा कर दो। आप और बाबूजी अब हमारे पास ही रहो।” 

तभी सुलोचनाजी बोली, “अभी तो मुझे बाबूजी के पास ही छोड़ आओ। मैंने अपना सामान पैक कर लिया है। वापस जब यहाँ रहने आऊँगी तब बाबूजी साथ ही होंगे।”

कुंदन ने माँ का सामान उठाया और सभी कार में बैठ गए। 

दूसरे बेटे चंदन के घर लॉन में मायूस सुस्त से बैठे यशवंतजी को जैसे ही कुंदन की कार का हॉर्न सुनाई दिया उन्होंने गर्दन घुमाकर मेन गेट की ओर देखा और सोच में अख़बार उठाकर कमरे की ओर जाने लगे। तभी कार की डिक्की और दोनोंं गेट की आवाज़ पर फिर देखा तो सामने अपनी अर्धांगनी सुलोचना को सामान सहित देख उनके चेहरे की तनाव भरी लकीरें ख़ुशियों की मुस्कराहट में बदल गईं। उनके बेजान से वृद्ध शरीर में युवाओं सी फ़ुर्ती आ गई। मुस्कुराते हुए तेज़ क़दमों से चल वे अपनी सुलोचना का स्वागत करने उसके निकट जा पहुँचे। अपनी नज़रों से ही एक दूसरे को आश्वस्त कर जीवन की शाम को साथ गुज़ारने के वादे को निभाने के लिए दोनोंं साथ क़दम बढ़ा, लॉन की कुर्सियों पर बैठ गए। यशवंत जी ने सुलोचना का हाथ थाम फिर कभी अलग न होने का वादा किया। सुलोचना की नम आँखें अपने जीवन साथी के साथ को महसूस कर रही थी। 

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