मैला मन
कथा साहित्य | कहानी वन्दना पुरोहित1 Nov 2024 (अंक: 264, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
महल्ले में चारों ओर सफ़ाई का माहौल था; दीपावली के कुछ ही दिन शेष बचे थे। रीमा परेशान थी कि अभी तक उसके घर की सफ़ाई की शुरूआत भी नहीं हुई। तभी सुबह 10:00 बजे अचानक डोर बेल बजी तो रीमा ने गेट खोला सामने कमज़ोर सी साँवली, तीखे नैन नक़्श वाली लगभग 28-30 वर्ष की सूती साड़ी पहने एक महिला खड़ी थी। जिसे देखते ही रीमा के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई।
रीमा ने पूछा, “तुम सरोज बाई हो!”
सरोज ने उत्तर दिया, “जी, मेमसाहब। मालती मैडम ने भेजा है।”
रीमा का अगला प्रश्न था, “अच्छा, कितना लोगी? पूरे घर की सफ़ाई करनी है।”
सरोज ने कहा, “एक दिन का हज़ार रुपया सुबह से शाम तक जितना होगा कर देंगे।”
रीमा सोचने लगी कि शायद कुछ कम कर दे तो . . . वैसे उसे बहुत ज़रूरत है, अकेले तो सफ़ाई होगी नहीं। रीमा बोली, “ज़्यादा है, देख लो कुछ कम कर लो। वैसे किसी और को भी कहा है वह आ जायेगा।”
सरोज दुविधा में पड़ गई—अभी मना किया तो काम हाथ से निकल जाएगा; बिटिया की तबीयत भी ठीक नहीं। वह सोच ही रही थी कि रीमा फिर से बोली, “सुनो 800 रुपये ले लेना।”
सरोज ने स्वीकार करते हुए कहा, “अब मेमसाहब आपने कह दिया है तो ठीक है। कोई पुराना चादर साड़ी दे देना।”
रीमा को अच्छा नहीं लगा, “अभी काम शुरू किया नहीं और तुम्हारी डिमांड शुरू हो गई। चलो अंदर आ जाओ।”
सरोज ने अंदर आते ही देखा कि घर में ख़ूब सामान था जिस पर मिट्टी व दीवारें गंदी थीं। दरवाज़े तो . . .
रीमा ने उसे झाड़ू, जाले झाड़ने वाला और कपड़ा सफ़ाई के लिए पकड़ा दिया। सरोज ने अपना काम शुरू कर दिया। तभी थोड़ी देर में रीमा निरीक्षण कर बोली, “वह देख कोने से झाड़ और उधर से, वह तस्वीर उतार कर पोंछ कर लगाना। अभी छत भी बाक़ी है। इतने धीरे-धीरे तो तुम अपने रुपए पक्के कर रही हो। मेरा छोटा सा तो घर है दो दिन की ज़रूरत नहीं एक दिन में ही हो जायेगा।”
सरोज बिदकी, “एक दिन में?”
रीमा ने रौब दिखाया, “हाँ हाँ एक दिन में थोड़ा जल्दी हाथ चलाओ।”
शाम होते ही सरोज में जाने की इजाज़त माँगी तो रीमा बोली, “अभी टाइम है; यह बरतन जगह पर रख दो और यह एक्सपायर सामान है—फेंक दो कुछ समझ आता है तो ले जाओ।”
सरोज की थकान के कारण हालत ख़राब थी अब तो पेट में भी चूहे दौड़ने लगे थे। एक कप चाय दिन भर में मिली थी। उससे भी क्या होता? बिटिया की तबीयत के कारण पहले उसे डॉक्टर को दिखा कर आयी। घर जाकर इन रुपयों से बिटिया को दवा लाकर देनी है—खाना बनाना है।
उसका बापू तो शराब में कमाई लगा देगा। ये सब सोचते हुए वो बरतन जमा रही थी। तभी घड़ी के काँटे पर उसकी नज़र बार-बार जा रही थी घड़ी में 6 के 6:30 बज चुके थे। अब तो वह पल्लू से पसीना पोंछ रीमा से बोली, “मेमसाहब अब जाएँ।”
रीमा ने ताना मारा, “तुम लोगों की नज़र घड़ी पर ही रहती है क्या? ठीक है, ठीक है यह लो पूरे 800 हैं।”
सरोज ने मिन्नत की, “मेमसाहब वह चदरिया साड़ी कुछ . . .”
रीमा ने टाल दिया, “फिर कभी देख लेंगे कभी आकर ले जाना।”
सरोज ने अपनी कमाई ली और जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाती हुई मेन गेट से निकल गई जैसे किसीसे पीछा छुड़ा कर भाग रही हो।
सरोज के जाने के बाद पतिदेव बोले, “रीमा, तुमने तो एक ही दिन में काफ़ी काम करवा लिया! उसे चादर या साड़ी दे देती।”
रीमा ने अपनी समझदारी पर गर्व करते हुए कहा, “आप भी ना, इन लोगों की तो आदत है माँगने की। वैसे मुझे भी थोड़ा-बहुत साथ में लगना पड़ता है वरना तुम्हारे तो ₹2000 सफ़ाई के लग जाते।”
पतिदेव अपनी पत्नी के व्यवहार से वाक़िफ़ थे। मन ही मन सोच रहे थे रीमा ने घर की सफ़ाई तो करवा ली लेकिन मैले मन की सफ़ाई कब करेगी?
रीमा अपनी चतुराई का प्रमाण मालती को कॉल लगा कर दे रही थी, “थैंक्यू मालती, तुमने सरोज बाई को भेज दिया। मेरा पूरा घर साफ़ हो गया। मैंने तो 800रुपए ही दिये 1000 का कह रही थी।”
मालती ने प्रशंसा करते हुए कहा, “तुम ग्रेट हो रीमा।”
दोनों ठहाका लगाकर हँस रहीं थीं।
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