अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सोंधी ख़ुश्बू

राजन आज 2 साल बाद ससुराल अपने साले की बेटी की शादी में आ रहा था। वो टैक्सी से उतर कर अपने ससुराल के दरवाज़े पर खड़ा था। रंगीन लाइटों की लड़ियों से रंगा-पुता घर दुलहन की तरह सजा था। आज 20 वर्षों बाद भी ससुराल में कोई परिवर्तन न आया था। पहली बार जब वह ससुराल शिवानी को देखने आया था तब शिवानी के सीधे लंबे केश व गोरे रंग पर पहने नीले रंग के शरारा कुर्ते में वो ग़ज़ब की सुंदर लग रही थी। माँ बापू जी के कहने पर दोनों को 10 मिनट अकेले बात करने का मौक़ा दिया गया था। उस पल ही शिवानी की सादगी भरी मीठी वाणी का राजन क़ायल हो गया था। दोनोंं की रज़ामंदी व बड़ों के आशीर्वाद से शिवानी व राजन की शादी हो गई। 

राजन शिवानी को पाकर बहुत ख़ुश था। राजन ही क्यों घर परिवार का हर सदस्य शिवानी के व्यवहार उसकी बोली के साथ ख़ुश थे। वह कभी किसी को तकलीफ़ में देखकर मदद करे बिना ना रहती। दूर-दूर के रिश्तेदार भी जब उसके घर आते थे उनका आदर सम्मान करना उसे बख़ूबी आता था। राजन की माँ तो शिवानी को बेटी का दर्जा देती थी। राजन की बहनें भी अपनी भाभी के साथ सहेली की तरह ही रहतीं थीं। घर का वातावरण बहुत ही अच्छा रहता था। 

समय चलता रहा शिवानी ने दो लड़कों को जन्म दिया। अपने दोनों बेटों में भी शिवानी ने ऐसे संस्कार दिये कि वह भी सभी का सम्मान करते थे। राजन को किसी प्रकार की कोई तकलीफ़ ना थी। बेटे भी बड़े होकर नौकरी करने लगे। हर तरफ़ ख़ुशहाली ही ख़ुशहाली थी। अपने दोनोंं बेटों की शानदार शादी कर शिवानी व राजन तीर्थयात्रा भी कर आये। प्यारी बहुरानियों ने पीछे से घर को बहुत अच्छे से सँभाला। अपनी बहुओं को भी शिवानी बेटी की तरह ही रखती थी अपने हर मिलने वाले से अपनी बहुओं की तारीफ़ करती। 

राजन अपनी शिवानी की यादों में खोया दरवाज़े पर खड़ा ही रह गया तभी राजन के साला साहब जो बाज़ार से आए थे उन्हें खड़ा देख उनका सामान उठाकर अंदर ले गए। शादी का माहौल था सभी ने राजन का स्वागत किया और पास बैठ कर बातें करने लगे। चाय-पानी के साथ बातें चलती रही। सभी शिवानी की बात ही कर रहे थे कि कैसे वह सभी को अपनी मीठी बोली से अपना बना लेती थी। भाभी की आँखें तो बात करते हुए नम हो गईं थीं। साड़ी के किनारे से अपने आँसू पोंछते हुए काम का बहाना ले वे वहाँ से चली गयी। हर तरफ़ शिवानी की यादें थी। आज उसे ये बात सच प्रतीत हो रही थी कि इंसान के जाने के बाद लोग उसका व्यवहार ही याद करते है। राजन को उसकी यादों ने डूबा कर बेचैन कर दिया था। राजन आज भी उस महामारी के काल को याद कर सिहर उठता है जब उसकी शिवानी साँस उठने के कारण दम तोड़ महामारी के काल का ग्रास बन उसे अकेला छोड़ गयी थी। आज वो जी रहा है तो बस अपने बच्चों के लिये। शिवानी कि तरह ही वो भी हर रिश्ते को प्यार और अपनत्व से निभा रहा था। शिवानी के प्यार व रिश्तों की सोंधी ख़ुश्बू ही उसके जीने का सहारा थी। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं