अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सपनों का घर

रोहित छत से दूर तक खड़ी ऊँची मंज़िलों को ताक रहा था उसे भी इस शहर में अपने सपनों का घर बनाना था किराया देते हुए और घर बदलते-बदलते रोहित और शिखा दोनोंं ही परेशान हो चुके थे। मकान मालिक अपनी इच्छा से कभी भी घर ख़ाली करने का हुक्म दे दिया करते और किराया बढ़ा देते। शिखा तो अपने सामान को सहेज कर फिर बाँधने खोलने से परेशान हो चुकी थी। 4 साल के सनी के साथ यह सब करना बहुत मुश्किल था लेकिन मजबूरी इंसान को सब करवा देती है। 

रोहित अपने विचारों में गुम इस बड़े से शहर की इमारतों में अपनी बहुत बड़ी इमारत तो नहीं छोटा घर बनाने की ख़्वाहिश में इमारतों को निहार रहा था तभी शिखा छत पर कॉफ़ी के कप लेकर आ गई। शिखा की पायल की आवाज़ से ही वह जान गया था कि छत पर शिखा आई है। शिखा को देखे बिना ही रोहित एक लंबी साँस लिए बोला, “क्या हमारा सपना पूरा होगा?” 

शिखा को तो मालूम ही था कि रोहित दलालों के साथ ज़मीन देख-देख कर हार गया था इसलिए उसे समझाते हुए बोली, “ईश्वर पर विश्वास रखो। आज नहीं तो कल जो सोचा है वह काम हो जाएगा।”

रोहित चिंता करता हुआ बोला, “सनी भी बड़ा हो रहा है उसकी पढ़ाई-लिखाई का ख़र्च भी जमा कर रखना होगा।”

शिखा हँसते हुए कहा, “सनी! तुम भी रोहित . . . अभी वह 4 साल का है इतने साल पहले ही चिंता कर रहे हो।”

रोहित ने उत्तर दिया, “सब देखना पड़ता है। मेरी तनख़्वाह से ख़र्च और गाँव भी रुपया भेजना पड़ता है। महँगाई तो तुम्हें पता ही है दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़ रही है। गैस सिलेंडर का रेट देखो आसमान छू रहा है।”

शिखा बोली, “रोहित यह तो रोज़मर्रा के ख़र्च हैं कुछ बचत भी तो की है तुमने इतने सालों में और लोन आदि लेकर हम घर बना ही लेंगे। वैसे तुमने मुझे नौकरी तो करने नहीं दी। माँं बाबूजी की बात पकड़ कर बैठ गये की हमारी बहू नौकरी नहीं करेगी। इस महँगाई के ज़माने में दो कमाते हैं तो घर-ख़र्च आराम से चलता। वैसे ज़रूरत हो तो गहने बुरे वक़्त के लिए ही होते हैं। तुम जल्दी से इस बार जो ज़मीन देखो उसे फ़ाइनल कर लेना।”

रोहित “हम्म” के सिवाय कुछ न बोल पाया। तभी पास खड़ा सनी जो इतनी देर से दोनों की बातें सुन रहा था बोला, “पापा, पापा मेरे पिगी बैंक में भी बहुत सारे रुपये हैं वो भी आप ले लेना फिर तो घर बन जायेगा।”

नन्हे सनी ने चिंता के बीच दोनों को मुस्कराने की वजह दे दी। उसकी प्यारी बात पर शिखा उसे गोदी में लेकर चूमने लगी। लेकिन रोहित सनी को शामिल देख अपने अतीत में खो गया छत की दीवार के सहारे चलते हुए उसने अपनी जवानी के वे बुरे दिन याद कर लिए जिन्हें वो कभी याद नहीं करना चाहता था। गाँव से शहर पढ़ने आया था लेकिन पढ़ाई-लिखाई के साथ बुरी संगत में पड़ गया। कॉलेज में दिखावे के चक्कर में पैसे वाले दोस्तों के साथ उन्हीं की तरह होटल-बार जाने लगा था फ़ुज़ूलख़र्ची की आदत पड़ गई थी। गाँव के दोस्त राजेश ने उसे कितना समझाया लेकिन उन दिनों तो राजेश उसे दुश्मन की तरह लगता था। बाबूजी को पता लगते ही उन्होंने उसे पढ़ाई पूरी करते ही गाँव बुला लिया था। नौकरी के कारण जब दुबारा शहर आया तब दस हिदायतों के बाद ही बाबूजी ने शहर आने दिया था और बचत का पाठ भी पढ़ाया था। इस बार शहर आकर उसने पुरानी ग़लतियाँ नहीं दोहरायी थीं, तभी ज़िन्दगी शादी के बाद, अपने परिवार के साथ बड़ी शान्ति से गुज़र रही थी। छत पर दूर खड़े अपने ख़्यालों में खोये रोहित को देख शिखा बोली, “ख़्यालों से काम नहीं चलेगा चलो आज अख़बार में एड देखा था फ़्लैट बुक हो रहे है इंस्टालमेंट में पेमेंट होगा तो कुछ दिक़्क़त भी नहीं होगी। चलकर वहाँ बात करते हैं।”

रोहित आज की दुनिया में लौट आया, “अरे हाँ! मैंने भी सुबह यही सोचा था तुम्हें बताना भूल गया। चलो जल्दी से तैयार हो जाओ।”

शिखा फटाफट तैयार हो गई। सनी भी बहुत ख़ुश था। रोहित ने अपनी मोटरसाइकिल निकाली। तीनों अपने सपनों के घर को बुक करने निकल पड़े। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कहानी

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं