कॉलेज के दिन!
संस्मरण | स्मृति लेख अभिषेक पाण्डेय15 May 2024 (अंक: 253, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
कुछ देर की बूँदाबाँदी थम चुकी है, धरती के फटे हुए ओंठ ज्यों के त्यों दिखने लगे हैं! कंकड़ फेंके जाने के कारण तालाब में आया विक्षोभ अब शांत हो चुका है! घटना का तात्कालिक प्रभाव समाप्त हो चुका है, संचारी भाव की जगह स्थायी भाव ने ले ली है। मैं समझता हूँ कि अब घटना का विवरण प्रस्तुत करना उपयुक्त रहेगा!
दो साल की अनिच्छा और मक्कारी फलित हुई, मैं इस बार भी जे ई ई प्रवेश परीक्षा में फ़ेल हो चुका था! मरते क्या न करते, घरवालों का सम्मान बचाने के लिए मैं सरकारी कॉलेज नाम के जनरल डिब्बे में चढ़ गया। वैसे भी ए के टी यू में बच्चे कॉलेज नहीं लेते बल्कि कॉलेज बच्चे लेते हैं! अगर कॉलेज के नक़्शे की बात करें तो सुनिए-—
झूठ कहूँ तो ऐसी संगमरमर की महीन बारीक़ी से तराशी इमारत मैंने आज तक न देखी थी, नाहक़ ही ताजमहल दुनिया का सातवाँ आश्चर्य है! स्थानीय लोगों से यह भी पता चला कि कामगारों के हाथ कट जाने पर उन लोगों ने बादशाह से प्रतिशोध लेने हेतु ताज की ही प्रतिकृति बनाई थी। ख़ैर जो भी सत्य हो पर एक बात दोनों इमारतों में साझा है कि एक जगह शाहजहां और मुमताज़ की क़ब्र है और दूसरी जगह लड़कों के सपनों की क़ब्र! अब बात कर लेते हैं उस लोक के सजीवों की—उस लोक में दो प्रकार के प्राणी थे—एक वे जो अपनी सफलता पर अविभूत थे और दूसरे अपनी असफलता छुपाने का एक ज़रिया पा गए थे।
फ़र्स्ट ईयर में पढ़ने का बड़ा जुनून था। क्लासेज़ शुरू होते ही हममें दूसरे पेग वाला ख़ुमार चढ़ जाता था और हमें रामानंद सागर वाली रामायण से लक्ष्मण का ये डायलॉग ध्यान आता था—अगर मेरे भइया राम मुझे आज्ञा दें तो ये धनुष तो क्या मैं पूरे ब्रह्माण्ड को गेंद की तरह उठाकर इस तरह पटकूँ कि उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाए। इसके बाद मेरी मुट्ठियाँ भिंचकर कठोर हो जाती थीं . . . लेकिन भइया राम आदेश नहीं देते थे क्योंकि वे जानते थे कि ये धरती को अपने फन पर धारण करने वाले लक्ष्मण नहीं बल्कि सूर्य तक पहुँचने की कोशिश में अपने पंख जलवा चुका सम्पाती है।
हम प्रौढ़ों से भी ज़्यादा इंकलाबी स्थिति नवजात लड़के और लड़कियों की थी। कुछ तो रोज़ लाइब्रेरी देवी को बलि चढ़ाने आते-जाते थे। इस सब के समानान्तर एक और घटनाक्रम ज़ोर पकड़ता जा रहा था। हमारी समृद्धि हमारे सीनियर्स देख नहीं सके क्योंकि कोई भी बीमार नहीं चाहता कि बग़ल वाले बेड का मरीज़ उससे जल्दी स्वस्थ होकर घर चला जाए! उन्होंने अपने असाइनमेंट और करियर की अनिश्चिता की भड़ास हम पर निकालनी शुरू की! बहुत बार पत्थर-पत्थर से टकराया, चिंगारी भी निकली पर ऐन मौक़े पर पानी की फुहार पड़ जाती जिसके कारण चिंगारी आग का रूप न ले पाती . . . इसी समय हमारे देश में रोना ने . . . माफ़ कीजिये कोरोना ने प्रवेश किया।
उसने शेषनाग के फन को जो राहत दी सो दी ही, उसने एक धार्मिक घात भी किया! उसने ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, संन्यासी सबको गृहस्थ बना डाला। ऐसी हालत थी कि दिन में रात की चर्या होती थी और रात में दिन की चर्या! कदाचित अगर घर और बेड दोनों के हाथ होते तो वो थप्पड़ मार-मारकर गाल लाल कर देते! बहुत से बदलाव हो रहे थे, खाँसी कोरोना में बदल रही थी, लोग डॉक्टर्स में बदल रहे थे और छुट्टियाँ दिन से हफ़्ते, हफ़्ते से महीने और महीने से छमाही में बदल रही थीं . . . रोज़ सुबह न्यूज़ चलती थी कि आज 30, 000 मरे, आज 50, 000 मरे और लोग भयविभोर होकर गाते थे:
“नैनम् छिन्द्यन्ति शस्त्राणि नैनम् दहति पावकः
न चैनम् क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुतः”
ख़ैर मैं स्वदेशी में विश्वास रखने वाला व्यक्ति हूँ, विदेशी प्रोडक्ट की इतनी चर्चा नहीं करूँगा!
हालाँकि यूनिवर्सिटी ने हमारी फटी झोली पर तरस खाकर हमें प्रमोट कर दिया!
वैसे तीसरा सेमेस्टर भी कोरोना ने हमारे बदले स्टडी किया पर ज़ालिम यूनिवर्सिटी ने पेपर देने हम लोगों को बुलवाया . . . यद्यपि हम सम्पाती ही थे पर एक बार युद्ध लड़ने का अनुभव तो था ही पर पेपर का नाम सुनकर नवजात तो और भी कँपकँपाते थे। इसी समय हमें एक ऐसी चीज़ मिली जिसकी उपमा ये है—बारिश में छाता, अंधों में काना राजा, मधुमेह में इन्सुलिन आदि—क्वांटम! वो ईश्वर की वाणी थी, श्रुति परंपरा के द्वारा हमारे पूर्वजों तक पहुँची थी, फिर किसी वेदव्यास ने उसे लिखित रूप में संकलित करके हम तक पहुँचाया! ये आवश्यक भी था क्योंकि हम कोई हनुमान तो है नहीं कि पर्वत लादकर मूर्छित लक्ष्मण तक जड़ी बूटी पहुँचाने की ज़हमत उठायें, हम तो भरत के बाण में बैठेंगे और एंड पॉइंट तक पहुँच जायेंगे!
वैसे हरि अनंत हरि कथा अंनता की तर्ज़ पर हर सेमेस्टर की भी तमाम गुणगाथाएँ हैं, पर वो सब विवरण दिया तो ये लेख सेमेस्टर की मार्कशीट बनकर रह जायेगा और पढ़ने वालों के लिए ये संस्मरण नहीं बल्कि मरण बन जायेगा!
अब सीधा आख़िरी वर्ष में चलेंगे;
अंतिम साल पिंजड़े से निकलने की उत्सुकता तो थी ही, साथ ही साथ अनंत आकाश की विशालता का भय भी था। सूर्य ढल चुका था, नसों का ज्वार ठंडा पड़ गया था और आगत की चिंता माथे पर बल डालना शुरू कर चुकी थी। कोरोना महाराज इंडिया में इंटर्नशिप करने के बाद अब वुहान में अपना स्टार्टअप चला रहे थे। सब अपनी-अपनी काठी चढ़ाने के लिए कोई न कोई घोड़ा खोज रहे थे! जिसे घोड़ा नहीं मिल रहा था, वो गधे और खच्चर तक को नहीं छोड़ रहे थे! प्लेसमेंट के लिए लोग ब्रांचेज की एक्सटर्नल स्लाइडिंग करा रहे थे! कुछ नवजात कंपनी में काम करने वाले लोगों को अपने जीजा, काका और ताऊ बना रहे थे, रिश्तेदारियाँ खोजी जा रहीं थी, इतनी शिद्दत से अगर कोलंबस भारत खोजता तो उसे ज़रूर मिल जाता! मुझे तो रिश्तेदार मिलते ही न थे, उनमें और मुझमें घाव और नमक का सम्बन्ध था! बड़े ज़िद्दी बैल थे, आख़िर नाक नथने नहीं ही दी! क्रांतिकारी कविता लिखना और बात है पर आंदोलन में 5-10 लाठी खाना अलग बात! हम फ़र्स्ट क्लास ए सी में टिकट तो नहीं ही ले सके साथ ही जनरल डिब्बे से भी उतार बाहर किये गए! निराश होकर हम दुबारा बाप के कंधों पर काठी धरकर एकहरा हो रहे! ये हमारे निठल्लेपन और बेशर्मी की पराकाष्ठा ही है कि हम ये लेख पूर्ण श्रद्धा से मात्र लिख ही नहीं रहे वरन् इधर उधर साझा भी कर रहे हैं।
शायद बहुत कुछ छूट गया है! पर कुछ छूट जाना ही पढ़ने वाले को कहानी ख़त्म होने के बाद भी कहानी से जोड़े रखता है! कुछ छोड़ना ज़रूरी है: लेखक की दृष्टि से भी और पढ़ने वाले की दृष्टि से भी . . .।
(क्वांटम = मॉडल पेपर की तरह की एक पुस्तक जिसमें विषय के मुख्य बिंदु समाहित रहते हैं)
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