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एक किरण पर्याप्त है! 

 

छोटी सी पट में है दराज़
पर कुछ प्रकाश तो आता ही है! 
 
गुमी हुई सन्नाटे में हैं ध्वनियाँ सारे जीवन की
त्यों ही तेरी दशा बनी ज्यों बरस न सकते घन की
सूरज की पूँछों में लिपटा स्याह अँधेरा आया है
मौन निमंत्रण के धोखे में सदा छलावा पाया है
 
कितना भी वंचित कर दे
पर धरती के हिस्से में 
कुछ आकाश तो आता ही है! 
 
दिन भर सूरज न निकले, भौरें न मिलने आएँ
सर्द हवा के झोंके भी कलियों को डाँटें-धमकाएँ
बड़े-बड़े तरु भीत खड़े हों मौन—काँपते
मानव चलते सोच समझकर क़दम नापते
 
भले हवा का रुख़ कुछ भी हो 
पर कलियों के चंचल उर में 
उच्छवास तो आता ही है! 
 
भले ही कविता पीर बढ़ा दे, गालों पर कुछ भेंट चढ़ा दे, 
राहें ढूँढ़ न पाएँ द्वार, ऐसा कोई जोड़ भिड़ा दे 
करवट ले सिसकन रात-रात भर, सुबह शांत हो सहमति देदे, 
देवमूर्ति का करे विसर्जन, भारी क़दमों को गति देदे, 
 
घूट-घूट से पीड़ा उतरे 
पर दैनन्दिनि के इन पन्नों में 
कोई ख़ास तो आता ही है! 

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