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क्रान्ति 

निज दशा को देखकर, प्रश्न मन में एक आता, 
मैं और उसके उत्तरों को खोजता, कविता बनाता, 
 
काश मैं भी ढल गया होता समय के साथ में!
काश मैं भी बढ़ गया होता ज़िंदगी के साथ में!
काश मैं स्वीकार करता काल के मीठे प्रलोभन!
काश मैं भी लीक में चलता लिए बेहोश तन-मन!
 
क्योंकर पला विद्रोह का एक अनहद नाद मुझमें
क्योंकर उठा शूरता का एक अद्भुत उन्माद मुझमें, 
क्यों न मैंने पी लिया निज अश्रुओं का नमकीन पानी, 
क्यों न मैंने शीत कर ली गात की रक्तिम जवानी?
 
पर कौन है जो हो विकल ये प्रश्न तीखे पूछता?
मैं हूँ या मेरी थकावट, मुझको नहीं कुछ सूझता, 
अंतर्मनों से एक नाज़ुक मंद सी आवाज़ आती, 
जो थकावट को ही इसका मूल कारण है बताती, 
 
पर अंदर पला अब भी कोई जो रुद्र सा हुँकार भरता, 
घायल, व्यथित होते हुए भी पंथ से रंचक न टरता, 
जब भी कभी थक बैठ जाता पेड़ की मैं छाँव में, 
भरता चपलता वो अनोखी इस दुर्बल पथिक के पाँव में, 
 
वो कह रहा वे श्रेष्ठ हैं जो सदा गलते रहे, 
चल-चल मिटे, मिट-मिट सदा चलते रहे, 
भीख स्वीकारी नहीं, संघर्ष को वरते रहे, 
दीप बनकर जल बुझे, पर तिमिर हरते रहे, 
 
इतिहास की ये लालिमा उनकी रगों का रक्त है, 
अव्यक्त उनका शौर्य जो मेरे दृगों में व्यक्त है, 
इस लेखनी में जो बसा अणुमात्र भी का ताप है, 
बस शब्द हैं मेरे सँजोये, ये उन्हीं का ताप है॥

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