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यह क़लम समर्पित न होगी . . . 

यह क़लम समर्पित न होगी सिंहासन तेरे चरणों में . . . 
 
चाहे मुझको सम्मान मिलें, 
चाहे मुझको अपमान मिलें, 
कितने कंटक, व्यवधान मिलें, 
पर वाणी चुप तो न बैठेगी सीताओं के हरणों में, 
यह क़लम समर्पित न होगी सिंहासन तेरे चरणों में॥
 
जर्जर झुग्गी में काली छाई, 
विकास खेलता आँख-मिचाई, 
रे! पीछे छूटे भूखे भाई, 
जब तक दीमक लगा हुआ है देश-वृक्ष के पर्णों में, 
यह क़लम समर्पित न होगी सिंहासन तेरे चरणों में . . . 
 
जब तक माटी के स्वर टकरा
लौटें दिल्ली की मीनारों से, 
दफ़्तर दफ़्तर न्याय माँगते
दुर्बल थक जाएँ हारों से, 
जब तक दीनों का शंखनाद पहुँचेगा नहीं बधिर कर्णोँ में, 
यह क़लम समर्पित न होगी सिंहासन तेरे चरणों में॥

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