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मैं अपना दुख-द्वन्द्व लिए फिरता हूँ! 


मैं अपना दुख-द्वन्द्व लिए फिरता हूँ
बरस-बरस बादल बन-बन फिर घिरता हूँ॥
 
स्मृति की खटिया पर लेटा 
पीड़ा की चादर तान मित्र! 
इस घोर एकाकी अंधकार में 
नभ के विस्तृत मदिरालय के 
इस तारे से उस तारे तक
सूनी आँख लिए फिरता हूँ . . . 
 
रुग्ण देख प्राची की लाली 
राह सामने ख़ाली-ख़ाली 
छाया का अस्तित्व न जान 
कंधों की अनुपस्थिति मान 
अपने ही आँसू में मैं तो
डूब-डूब तिरता हूँ . . .
 
दूर जगत के किसी पिंड में
जीवन-चिन्हों की प्रत्याशा से 
सपनों के रॉकेट से उड़-उड़
चिंताओं के गुरुत्वाकर्षण में
उलझ, धरा के कुलिश वक्ष पर
खग के पर सा गिरता हूँ . . .
 
कलमों से गलबइहाँ करके 
श्वेत पृष्ठ पर पीड़ा भरके
जीवन के अपने अनाज को
कविता के इस सिद्ध सूप से
फटक-फटक झिरता हूँ . . .


-अभिषेक पाण्डेय

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