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हे लेखनी!

हे लेखनी! कुछ तो कहो, मौन न तुम यूँ रहो . . .
 
मौन अधरों की व्यथा देखो भला क्या कह रही है,
पीर अंतर की उमड़कर अश्रु बन क्यों बह रही है,
अवसाद फिर स्मृति पटल पर बादलों से तिर रहे हैं,
दृश्य जीवन के करुण फिर फिर पुनः से घिर रहे हैं,
 
आज मन की पीर को तुम शून्य काग़ज़ से कहो,
हे लेखनी! कुछ तो कहो, मौन न तुम यूँ रहो . . .
 
गहन तम के अंध में डूबी हुई सम्पूर्ण काया,
और जीवन के क्षितिज पर है कुहासा घना छाया,
आज इस तमपुंज को आलोक का वरदान दो,
व्यक्त करके सब व्यथा, अग्रिम समर का गान दो,
 
आज उर के ज्वार को संसार भर से जा कहो,
हे लेखनी! कुछ तो कहो, मौन न अब यूँ रहो . . .

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