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झोपड़ी की सैर

आज चला उस गली की ओर, 
जिधर कभी होती न भोर, 
 
राजमहल के दरवाज़े जिस
ओर कभी न खुलते हैं, 
सपनों के शृंगार सभी आँसू 
बनकर के गलते हैं, 
रोज़ सुबह पुरवाई आकर
थप्पड़ मार जगाती है, 
उठो-उठो मरभुक्खो, गँवारो! 
कहकर क्षुधा हाथ में कठिन
कुदाल थमाती है, 
आयु जिनकी बीत गई है तप्त
रेत में चलते चलते, 
जिन्होंने सीख लिया है जलना 
जीवन भर जलते जलते, 
जिनके पास वक़्त नहीं है
अमराई में सुस्ताने का, 
और प्रेमिका को भी अपनी
छिपी प्रीति दिखलाने का, 
 
जिधर ढूँढ़ दाने चुगता है, नहीं नाचता मोर, 
आज चला उस गली की ओर॥
 
जिनकी झुग्गी झोपड़ियाँ 
आहत वर्षा की बौछारों से, 
जिनके छप्पर काँप रहे हैं
तीव्र हवा की मारों से, 
जिनकी दीवारें कहती हैं
अपनी जर्जर गाथा, 
जिनकी इज़्ज़त नवा रही है
हुक्कामों को माथा, 
किंचित तन-पेट काटकर
दो पैसे यदि कभी जुहाते, 
दो प्याले पीते मदिरा के
बेहोशी में रात बिताते, 
 
बस एक इसी नुस्ख़े से दबता, प्रत्यक्षों का शोर
आज चला उस गली की ओर . . . 
 
गन्दी गलियाँ, गन्दे नाले, 
गन्दे वस्त्र देह पर घाले, 
खेल रहे बच्चे मतवाले, 
अबोधता का पर्दा डाले, 
उधर स्वेद सिंचित अधरों से
कोई बुला रही मधुमास, 
कोई माता अश्रु-नीर से 
बुझा रही बालक की प्यास, 
 
जहाँ प्रेम को गौरव देता, संघर्षों का रोर . . . 
आज चला उस गली की ओर, 
जिधर कभी होती न भोर . . .

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