झोपड़ी की सैर
काव्य साहित्य | कविता अभिषेक पाण्डेय1 Jul 2022 (अंक: 208, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
आज चला उस गली की ओर,
जिधर कभी होती न भोर,
राजमहल के दरवाज़े जिस
ओर कभी न खुलते हैं,
सपनों के शृंगार सभी आँसू
बनकर के गलते हैं,
रोज़ सुबह पुरवाई आकर
थप्पड़ मार जगाती है,
उठो-उठो मरभुक्खो, गँवारो!
कहकर क्षुधा हाथ में कठिन
कुदाल थमाती है,
आयु जिनकी बीत गई है तप्त
रेत में चलते चलते,
जिन्होंने सीख लिया है जलना
जीवन भर जलते जलते,
जिनके पास वक़्त नहीं है
अमराई में सुस्ताने का,
और प्रेमिका को भी अपनी
छिपी प्रीति दिखलाने का,
जिधर ढूँढ़ दाने चुगता है, नहीं नाचता मोर,
आज चला उस गली की ओर॥
जिनकी झुग्गी झोपड़ियाँ
आहत वर्षा की बौछारों से,
जिनके छप्पर काँप रहे हैं
तीव्र हवा की मारों से,
जिनकी दीवारें कहती हैं
अपनी जर्जर गाथा,
जिनकी इज़्ज़त नवा रही है
हुक्कामों को माथा,
किंचित तन-पेट काटकर
दो पैसे यदि कभी जुहाते,
दो प्याले पीते मदिरा के
बेहोशी में रात बिताते,
बस एक इसी नुस्ख़े से दबता, प्रत्यक्षों का शोर
आज चला उस गली की ओर . . .
गन्दी गलियाँ, गन्दे नाले,
गन्दे वस्त्र देह पर घाले,
खेल रहे बच्चे मतवाले,
अबोधता का पर्दा डाले,
उधर स्वेद सिंचित अधरों से
कोई बुला रही मधुमास,
कोई माता अश्रु-नीर से
बुझा रही बालक की प्यास,
जहाँ प्रेम को गौरव देता, संघर्षों का रोर . . .
आज चला उस गली की ओर,
जिधर कभी होती न भोर . . .
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- A Sunset
- अक्खड़ बाल
- अचानक कुछ कौंधा!
- अब आलिंगन न होगा . . .
- अब राह नहीं छोड़ूँगा
- अबूझी मंज़िल अनजानी राहें
- आ रही गहरी निशा है
- आओ विकास
- आग न उठती हो जिसके अंतर में
- आत्मस्वीकार
- आहटें आती रहीं पर तुम न आई
- इंतज़ार कर, होगा सबेरा . . .
- उछलो!
- उतरो रे सूर्य गगन से . . .
- एक अधूरा मरा स्वप्न
- एक किरण पर्याप्त है!
- एक रात की पढ़ाई
- ऐ पथिक तूँ चल अकेला
- ऐसी कविता रच डाल कवि!
- ओ टिमटिमाते दीप!
- ओस
- कब पूर्ण होगी यह प्रतीक्षा
- कवि की अमरता
- कविता और जीविका: दो विचार
- कविता का ढाँचा!
- कविता में गाली!
- कहीं देर न हो जाए!
- कामना!
- कोई नहीं है साथ . . .
- कौन देता है इतना साहस!
- क्रान्ति
- गणतंत्र
- चल-चल चल-चल चल-चल चल
- चलने दो समर भवानी....
- जागी प्रकृति फिर एक बार . . .
- जागो मत!
- जीवन-नौका खेते रहना
- झपकी
- झुग्गियों के सवाल . . .
- झोपड़ी की सैर
- डूबता अंतिम सितारा
- तुम्हारे शून्य में!
- तेरी याद नहीं आई!
- थिरक थिरक रे थिरक थिरक मन . . .
- दिन और रात
- धरा के निश्वासों में न ढूँढ़ो गगन को
- धूप और बारिश
- निराशा
- निर्जीव!
- पाँव मेरे मत बहकना!
- प्रबल झंझावात है . . .
- फिर कभी!
- फिर तुम्हारी याद आई
- बस इतना करती हैं कविताएँ
- बोलो!
- भक्त की पुकार
- भटकन!
- भर परों में आग पक्षी
- भीष्म – कृष्ण संवाद
- भोर अकेला साँझ अकेली
- महाकवि निराला
- महाराणा को श्रद्धांजलि
- मित्र के प्रति!
- मुकुट धरो हिंदी के सर पर . . .
- मेरे पिताजी!
- मैं अपना दुख-द्वन्द्व लिए फिरता हूँ!
- मैं क्यों अपनी पतवार तजूँ?
- मैं सदा खोजता रहा रश्मि
- मैं ज़मीन पर हूँ
- मैंने ख़ुद का निर्माण किया है
- यह क़लम समर्पित न होगी . . .
- युग उसको न क्षमा करेगा!
- रात के घुप अँधेरे में
- विचार
- शूर! समर में जाना होगा . . .
- संवेदना-2
- सजा हुआ जंगल
- सरस्वती - वन्दना
- सवाल!
- सहज हूँ . . .
- साफ़ सुथरे कमरे!
- सूरज का छल
- हतोत्साहित मन
- हारों की शृंखला
- हीनता का अतिराष्ट्रवाद!
- हुंकार
- हे उदासी
- हे ध्वज मेरे
- हे मेरे कवि!
- हे हरि!
- ग़लतफ़हमी
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
स्मृति लेख
गीत-नवगीत
कविता - क्षणिका
हास्य-व्यंग्य कविता
कविता - हाइकु
कहानी
बाल साहित्य कविता
किशोर साहित्य कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं