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इंतज़ार कर, होगा सबेरा . . . 

इंतज़ार कर, होगा सबेरा . . .
 
रात ने निज अंक में
हैं समेटी किरण सारी, 
देहरी को देखते, अपलक
दुख रहीं आँखें हमारी, 
है उठाता ज्वार जलधि
निर्दय निगलता है तटों को, 
अश्रु किस विधि भेद देता 
पौरुषों के दृढ़ पटों को! 
स्वप्न के अवसान पर
व्यंग्य करती सृष्टि पूरी, 
प्रीति मानो छल गई है 
चाँदनी लगती अधूरी, 
 
पर कवि-मन घोर तम में भोर का कल्पित चितेरा, 
इंतज़ार कर, होगा सबेरा . . .
 
ठूँठ तरुवर ताकते हैं
बसंत की मादक बहारें, 
हरी घासों को बुलाते
बाँह फैलाकर कछारें, 
शुष्क कलिका के अधर को
चूसते भूखे भ्रमर हैं, 
द्वार पर सुन आहटों को,
पद और भी जाते सिहर हैं, 
उठ रहा मन में बवंडर, 
फैला क्षितिज के पार तक, 
हर सृजन को खींच ले 
जाता प्रलय के द्वार तक, 
 
पर पुनः तृण-तृण जुहाकर खग बनाएगा बसेरा, 
इंतज़ार कर, होगा सबेरा . . . 

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