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महाकवि निराला

कितने ही स्वर तो बन्दी थे छन्दों की दीवारों में
कितने ही पुष्प समर्पित थे महलों के शृंगारों में 
कितने सर जो नमित हुए थे साहित्यिक ठेकेदारों को, 
कितने ही लेखन मान रहे छल-छद्म-ईर्ष्या-प्रतिकारों को, 
  
युग का प्रवाह तो निश्चित था तुम किन्तु बहे विपरीत ओर
युग की रजनी को दिखा दिया पूरब का स्वर्णिम नवल भोर
युग की गाड़ी को खींचा था अपने विराट स्कन्धों पर
तुमने हस्ताक्षर किये नहीं समझौतों के अनुबंधों पर, 
  
कवि! किस माटी के बने हुए थे? 
किसका बल ले तने हुए थे? 
सचमुच गहन था अंधकारा
बैसाखियों का ले लेते सहारा! 
  
पोतने को झोंपड़ी तुम्हारी लालायित हज़ारों लोग थे, 
आलोचकों के अतिथि गृह में सजे रखे भोग थे, 
बस मौन हो जाते न तोड़ते पत्थर की कारा, 
चूसने देते लहू को खाद के बोल देते गुलाब प्यारा, 
  
तुम ही जानो अपनी कहानी, इस युग का सुनो क्या हाल है
बस जिधर देखी चमक चौंधिया जाते नयन झुकता हमारा भाल है, 
प्रसिद्ध है केवल वही युगबोध जिसका शून्य है, 
शब्द की खोली चढ़ा दे जो गंधाते फ़ैसलों पर है महाकवि वही मालामाल है, 
  
भर सके ऊँची उड़ान शायद तुम तलक कोई कभी! 
पर काव्य की वह गहनता आचरण में क्या जियेगा? 
शब्द से सिलते सभी हैं फटे कुर्ते निर्धनों के, 
स्वयं के वस्त्र की कतरन लगा क्या कोई कुर्ता सियेगा? 

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