जात न पूछो साधु की
आलेख | सामाजिक आलेख प्रवीण कुमार शर्मा1 Apr 2021 (अंक: 178, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
मेरे कॉलेज के शुरुआती दिनों में मुझसे मेरे एक मित्र ने स्वयं के संशय को दूर करने के लिए पूछा: "क्या तुम ब्राह्मण हो"? तब मैंने प्रत्युत्तर में कहा,"Man is Man; He cannot be particularised by cast."।
वास्तव में वह आधुनिकता को सच्चे मायने में नहीं समझ पाया। आधुनिक प्रचलन (fashion) को अपनाने से ही कोई व्यक्ति आधुनिक नहीं हो जाता। आधुनिक होने के लिए हमें अपने अंतःकरण का मंथन करना होगा। हमें अपने रूढ़िवादी एवं पूर्वाग्रहों से युक्त विचारधाराओं को त्यागना होगा तथा नवीन, पवित्र एवं समयानुकूल विचारों को ग्रहण करना होगा। आज हमारी समाज में सर्वाधिक रूढ़िवादिता जाति को लेकर देखी जा सकती है। जाति और ख़ानदान के नाम पर तो हम इतना आपा खो चुके हैं कि अपने आगे किसी को चलने ही नहीं देते। अधेड़ उम्र के लोगों तथा वृद्धों को तो छोड़िए, आधुनिक होने का दावा करने वाले युवा ही अक़्सर ऐसी बातें दोहराया करते हैं: "मैं जाट हू, मैं गुर्जर हूँ, मैं पंडित हूँ, मैं राजपूत हूँ आदि-आदि"।
भारत में विशेषकर हिंदू समाज में, धर्म तो दूर जातिगत (कौमी) एकता ही देखने को नहीं मिलती। हिंदू समाज में कभी तो ब्राह्मण अपनी सभा बुलाते हैं, कभी बनिया तो कभी जाट . . .। लेकिन इन महाशयों से यह पूछो कि क्या इस प्रकार शांतिपूर्ण जीवन जीने के सपने को पूर्ण किया जा सकता है? शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए तो हमें मानववाद को समझना होगा। मानववाद को समझने के लिए हमें 14-15 वीं शताब्दी के जाने-माने समाज सुधारक तथा मानव धर्म के प्रवर्तक कबीर को समझना होगा। संत कबीर का धर्म 'मानव धर्म' था। उनका बड़प्पन इसी में था कि उन्होंने हिंदू और मुसलमानों में प्रेम बढ़ाने की चेष्टा की। वे कहते थे, "दोनों का ईश्वर एक है। वह चाहे जिस नाम से पुकारा जाए। आपस में झगड़ा करना मूर्खता है"। उन्होंने न केवल धर्म को ही आड़े हाथों लिया अपितु जाति को भी नहीं बख्शा:
"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान"
कबीर ने व्यक्ति की साधुता सरलता तथा स्वच्छता जैसे गुणों पर बल दिया; इस बात पर नहीं कि उसकी जाति क्या है? कबीर का मानना था कि व्यक्ति चाहे जाति से चर्मकार ही क्यों न हो, यदि वह सहृदय, स्वच्छ तथा सरल है तो वास्तव में वह सम्मान के योग्य है।
जाति की उत्पत्ति के बारे में विचार करें तो हम पायेंगे कि सर्वप्रथम जाति की नींव मनुस्मृति में वैवस्वत मनु के द्वारा रखी गई थी। इसीलिए वैवस्वत मनु को जाति या वर्ण व्यवस्था का जनक माना गया है। उन्होंने वर्ण व्यवस्था को गुणों एवं कर्मों के आधार पर बाँटा था। मनु ने वर्ण-व्यवस्था का आधार विभिन्न वर्णों में कार्यों का तर्क पूर्ण विभाजन बताया। श्रीमद्भागवत गीता में इसे वेदव्यास जी ने भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से व्यापक रूप में कहलवाया है:
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।"
(ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन 4 गुणों का समूह गुण तथा कर्मों के विभाग पूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है)
गीता जी के अंतिम अध्याय में वेदव्यास जी के द्वारा ब्राह्मणों के बारे में बताया गया है कि:
"शमो द्मस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥18.42॥"
(अंतःकरण निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्म पालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना; मन,इंद्रिय और शरीर को सरल रखना; वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना; वेद शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्व का अनुभव करना...। ये सब के सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं)
इस तरह से ये गुण तो किसी साधु महात्मा में ही हो सकते हैं। चाहे वह किसी भी जाति का हो। ब्राह्मण (ब्रह्म+अण) का शाब्दिक अर्थ 'ब्रह्म का ज्ञाता' है। ब्राह्मण को तो मैं केवल एक पद ही मान सकता हूँ। इस लिहाज़ से वे सभी व्यक्ति जो ब्राह्मण कुल में पैदा नहीं हुए लेकिन उनके कर्म तथा गुण ब्राह्मणों जैसे थे, ब्राह्मण कहे जाने योग्य हैं। ऋषि स्वपच, संत रैदास, महात्मा ज्योतिबा फुले जैसे व्यक्ति ही सही अर्थ में ब्राह्मण कहे जा सकते हैं; ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाला नीच व्यक्ति रावण नहीं। रावण भी ब्राह्मण कुल में जन्मा था लेकिन वह एक नीच तथा दुर्गुणी व्यक्ति था। तभी तो वह ब्राह्मण न कहलाकर 'राक्षस' कहलाया।
"क्षत्रिय: = क्षात्र: धर्मस्य पालक: क्षत्रिय इति कथ्यते।"
अर्थात क्षात्र धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति ही क्षत्रिय कहलाता है। चाहे वह जाट हो या गुर्जर या पंडित:
"शौर्य तेजो ध्रुतिर्दाक्ष युद्धे चाप्य पलायनम।
दान्मिश्वर भावश्च क्षात्र कर्म स्वभावजम।"
(अर्थात: शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागने का स्वभाव एवं दान और स्वामिभाव ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं!)
इसी प्रकार वैश्य तथा सूत्रों के बारे में कहा गया है:
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥18.44॥
(खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय, रूप, सत्य व्यवहार। ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।)
आप ही बताओ क्या इन सारे कार्यों को केवल वैश्य ही करते हैं? चारों ओर दृष्टि डालने पर हम पाते हैं कि खेती, गोपालन जैसे घरेलू कार्यों को संपूर्ण जातियों के लोग गाँवों में रोज़मर्रा के आवश्यक कार्यों के रूप में निपटाते हैं। इस तरह से तो वे सभी वैश्य हुए। फिर हमने क्यों इसे एक जाति के रूप में पहचान दी है? आज आप व्यवसायिक या क्रय-विक्रय संबंधी नवीन पाठ्यक्रमों जैसे: बीबीए, एमबीए आदि प्रोफ़ेशनल कोर्सों में हर जाति के बच्चे को उत्सुकता के साथ पढ़ते हुए पाएँगे; केवल वैश्यों के बच्चों को ही नहीं। तब हम इन सब को वैश्य कहकर क्यों नहीं पुकारते?
यदि घर में कोई संत या महात्मा आए तो हम उसकी सेवा-सुश्रुषा में जुट जाते हैं। क्योंकि हमारी संस्कृति सदैव हमें अपने अतिथि का आदर-सत्कार करना सिखाती है, 'अतिथि देवो भव:'। भले ही वह किसी भी जाति का हो और आप भी किसी भी जाति के हों। ऐसे समय में कहाँ चला जाता है जातिवाद? फिर हम उन अतिथियों के लिए शूद्रों जैसा व्यवहार क्यों नहीं करते हैं? क्यों उनकी झूठी पत्तलें उठाते हैं? हम उनको दंडवत प्रणाम क्यों करते हैं? क्यों उनके पैर दबाते हैं? क्यों? क्यों? क्यों?. . . क्योंकि यही मानवता है, इंसानियत है और धर्म है।
वैसे भी नानक साहब ने अपने समय में जाति की निरर्थकता को बताते हुए भविष्यवाणी की थी कि "ईश्वर केवल मनुष्य के सद्गुण को पहचानता है तथा उसकी जाति नहीं पूछता; आगामी दुनिया में कोई जाति नहीं होगी।" यह भविष्यवाणी आज के समय सौ दर्जे सही बैठ रही है और इस बात पर हमें ग़ौर फ़रमाना भी चाहिए। तभी हम हमारे हृदय में बासूर (खरपतवार) की तरह घर किए हुए जातीय पूर्वाग्रहों से नजात पा सकते हैं।
इसलिए हमें मानवता को सर्वोपरि मानना चाहिए तथा जातिवाद, धर्मवाद वंशवाद जैसी संकीर्णताओं में ना पड़कर देश के संपूर्ण विकास में लग जाना चाहिए। इसी में हम सबकी भलाई है। मानव को मानवता की ख़ातिर दूसरे मानवों की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करना पड़े तो हँसते-हँसते कर देना चाहिए। क्योंकि–
"वह मानव ही क्या जो मानवता की रक्षा के लिए ना मरे
वह ख़ून ही क्या जो मानवता के काम ना आ सके।"
(प्रवीण कुमार शर्मा)
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