अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

हमारा घर ही अब वृद्धाश्रम हो चला है . . . 

शर्मा जी अपने घर के बाहर लॉन में घूम रहे थे। तभी अंदर से मिसेज शर्मा का बुलावा आया, “अजी सुनते हो। पिंटू का फ़ोन आया है। तुमसे कुछ कह रहा है।”

“ठीक है, अभी आता हूँ,”शर्मा जी ने एक राहत की साँस लेते हुए कहा। 

शर्मा जी ने घर में अंदर जाकर देखा तो फ़ोन कट चुका था और मिस शर्मा उदास सी बैठी हुईं थीं। 

“क्यों क्या हुआ?” अचानक से मिसेज शर्मा के उतरे हुए चेहरे को देख कर शर्मा जी ने पूछा। 

“अब की दीवाली पर भी हमारा पिंटू घर नहीं आ रहा। कह रहा है कि उसी समय कम्पनी की तरफ़ से विदेश जाने का प्रोग्राम है। सब विद फ़ैमिली जा रहे हैं तो वह भी विद फ़ैमिली जा रहा है,” मिसेज शर्मा ने अपना सर शर्मा जी के कंधे पर हताशा में लुढ़काते हुए कहा। 

“इसमें उदासी की क्या बात है? बच्चे हैं घूम आने दो। बच्चे अब नहीं घूमेंगे तो क्या हमारी उम्र में घूमेंगे!” शर्मा जी ने अपने आँसू छुपाते हुए कहा। 

"मैं कहाँ उदास हूँ? मुझे तो पिंटू के बेटे की याद आ रही थी। साल भर में दीवाली पर ही तो आते हैं। लेकिन इस बार तो दीवाली पर भी . . .” कहते-कहते मिसेज शर्मा बीच में ही रोने लगे गयी। 

“कोई बात नहीं। चुप हो जाओ। गली में और बच्चे भी तो हैं। उनसे मन लगा लेना . . . ” एक फीकी सी हँसी हँसते हुए शर्मा जी ने मिसेज शर्मा से कहा। 

कुछ देर बाद, शर्मा जी पुनः लॉन में आकर सोचने लगे कि हमारी तरह अब हमारे बच्चों को अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम नहीं भेजना पड़ेगा। 
हमारा घर ही अब वृद्धाश्रम हो चला है . . . !

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

लघुकथा

कहानी

सामाजिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. प्रेम का पुरोधा