ज़िंदगानी का सार यही है
काव्य साहित्य | कविता प्रवीण कुमार शर्मा1 May 2022 (अंक: 204, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
ज़िंदगानी का सार यही है
वह तो धारा सी ही बही है।
जिस ओर यह ले जाए
उस ओर ही बेबस इंसान चलते जाएँ।
धाराओं में पथ गर भटकें
साँस हलक़ में गर अटके।
तब या तो धाराओं को अपने जुनून से मोड़ दो
नहीं तो ख़ुद ही उनके मुड़ने का इंतज़ार करो।
एक दिन धारा पथ ज़रूर दिखाएगी
आशा की आँखें गर नहीं पथराएँगी।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अगर इंसान छिद्रान्वेषी न होता
- अगर हृदय हो जाये अवधूत
- अन्नदाता यूँ ही भाग्यविधाता . . .
- अस्त होता सूरज
- आज के ज़माने में
- आज तक किसका किस के बिना काम बिगड़ा है?
- आज सुना है मातृ दिवस है
- आवारा बादल
- कभी कभी जब मन उदास हो जाता है
- कभी कभी थकी-माँदी ज़िन्दगी
- कविता मेरे लिए ज़्यादा कुछ नहीं
- काश!आदर्श यथार्थ बन पाता
- कौन कहता है . . .
- चेहरे तो बयां कर ही जाया करते हैं
- जब आप किसी समस्या में हो . . .
- जब किसी की बुराई
- जलती हुई लौ
- जहाँ दिल से चाह हो जाती है
- जीवन एक प्रकाश पुंज है
- जेठ मास की गर्माहट
- तथाकथित बुद्धिमान प्राणी
- तेरे दिल को अपना आशियाना बनाना है
- तेरे बिना मेरी ज़िन्दगी
- दिनचर्या
- दुःख
- देखो सखी बसंत आया
- पिता
- प्रकृति
- बंधन दोस्ती का
- बचपन की यादें
- भय
- मन करता है फिर से
- मरने के बाद . . .
- मृत्यु
- मैं यूँ ही नहीं आ पड़ा हूँ
- मौसम की तरह जीवन भी
- युवाओं का राष्ट्र के प्रति प्रेम
- ये जो पहली बारिश है
- ये शहर अब कुत्तों का हो गया है
- रक्षक
- रह रह कर मुझे
- रहमत तो मुझे ख़ुदा की भी नहीं चाहिए
- रूह को आज़ाद पंछी बन प्रेम गगन में उड़ना है
- वो सतरंगी पल
- सारा शहर सो रहा है
- सिर्फ़ देता है साथ संगदिल
- सूरज की लालिमा
- स्मृति
- क़िस्मत की लकीरों ने
- ज़िंदगानी का सार यही है
लघुकथा
कहानी
सामाजिक आलेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं