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अन्नदाता यूँ ही भाग्यविधाता . . .

 

अन्नदाता यूँ ही
भाग्यविधाता नहीं कहलाता है। 
वह सदियों से पेट भरता रहा है
उन संभ्रांतों का
जो उसी का बेरहमी से शोषण करते आए हैं। 
उसी की ज़मीन को
उसी से छीनते आए हैं। 
और अगर ज़मीन छीनी भी नहीं है
तो कम से कम उससे कर तो वसूलते ही आए हैं। 
ये संभ्रांत निःसन्देह
ऋणी हैं
उस शोषित किसान के। 
उसके शिख से लेकर नख तक
तपती दोपहरी में निकलते उस
पसीने के। 
उसके पेट में मारे भूख के
मरोड़ें खाती हुई अँतड़ियों के। 
उसके द्वारा इस आभिजात्य वर्ग
के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी
उठाए गए कष्टों के। 
वह यूँ ही हलधर नहीं
कहलाता है
उसने समस्त धरती वासियों
का पेट भरने के लिए ही
इस धरती को अपनी मेहनत से
सींचा है। 
ग़रीबी और भुखमरी की चक्की
में पिसकर औरों का पेट भरा है। 
लेकिन ये अन्नदाता इस
समाज का एकमात्र ऐसा
अभिशिप्त प्राणी है जो
अपनी ही उदरपूर्ति के लिए
काम आने वाले अन्न को
इन संभ्रांतों को बेच
अपनी आजीविका चलाता है
और कभी-कभी तो आजीविका
को चलाने के चक्कर में
स्वयं को भूखा ही सोना पड़ता है। 

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