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सब कुछ भुला दिया हम सपनों के सौदागरों ने

 

टेड़ी-मेड़ी पगडण्डियाँ जब मुझे
भाव भीनी आँखों से विदा करने आईं थीं
शहर जाने वाली सड़क तक। 
 
किस तरह मैं निष्ठुर बना
कुचल कर आ गया था
उन पगडंडियों के वात्सल्य से भरे प्रेम को। 
 
मुझे आज भी याद है
मेरे गाँव के घर के आँगन
में लगा वो नीम का पेड़
जिसकी छाँव में खेलकर गुज़रा मेरा बचपन। 
 
मुझे आज भी तड़पा जाती है
हमारे घर के आँगन में लगी
माँ स्वरूपा तुलसी के चारों ओर
परिक्रमा लगाती दादी माँ। 
 
मैं जब पहली बार आया था शहर
तो गाँव की गलियाँ मुझे मुस्कुराते हुए
ठेठ गाँव के नुक्कड़ तक छोड़ने आई थीं
जबकि वो जानती थीं कि जिस किसी को
भी इस तरह विदा करने आईं थीं जो ये गलियाँ
उनके दर्शन ही दुर्लभ हो गए फिर हमेशा के लिए। 
 
इसी तरह पलायन होता रहा तो
सूनी भी हो जाएँगी ये गलियाँ हमेशा के लिए
लेकिन वे गलियाँ, वो सूना पड़ा घर, 
वे उम्मीद को दबाए हुई पगडण्डियाँ, वो खेत-खलिहान
वो पेड़ आज भी बाट जोहते हैं अपने सपनों को
पूरा करने गए लाड़लों की; 
जो भूल गए अपनी ही माँओं को
फिर चाहे वो तुलसी माँ हो या हो
दादी माँ और जन्म भूमि हो
या फिर हो जन्म दात्री माँ
सब कुछ भुला दिया हम सपनों के सौदागरों ने। 

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