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राष्ट्र और राष्ट्रवाद

 

राष्ट्र के प्रति जो हमारी
निःस्वार्थ और समर्पित भावना है
उसी से राष्ट्रवाद बनता है। 
 
सरल और स्प्ष्ट शब्दों में 
कहा जाए
तो राष्ट्र के प्रति हमारी
जो सोच है वही राष्ट्रवाद कहलाती है। 
 
धर्म यदि किसी व्यक्ति का नितांत
व्यक्तिगत मामला है तो
राष्ट्रवाद किसी भी नागरिक का
सामाजिक और कर्तव्यपरायण 
लक्ष्य हो सकता है। 
जिस तरह धर्म साधन है 
अपने अपने आराध्य तक 
पहुँचने का
उसी तरह राष्ट्रवाद किसी भी
राष्ट्र के लिए मेरुदण्ड है। 
 
मैं तो कहूँगा धर्मों में
भिन्न भिन्न मत हो सकते हैं
और वह विभिन्नता किसी को 
नुक़्सान भी नहीं पहुँचाती है
जबकि राष्ट्र के प्रति अत्यधिक 
असमानता हमेशा घातक सिद्ध होती है। 
 
इस तरह
किसी भी राष्ट्र की उन्नति और
कल्याण सिर्फ़ और सिर्फ़ इस
बात पर निर्भर है कि
समस्त धर्माववलम्बी और
मताववलम्बी अपने अपने धर्मों और मतों को एक तरफ़
रखते हुए सिर्फ़ राष्ट्र को ही
महत्व दें। 
 
सभी नागरिकों को राष्ट्र और राष्ट्रवाद
का सम्मान करना चाहिए 
और सभी के लिए 
राष्ट्र धर्म से भी बढ़कर होना चाहिए॥

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