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पुरुष हमेशा कठोर ही बने रहे . . .

 

पुरुष हमेशा कठोर
ही बने रहे
स्त्री हमेशा सुकुमार ही
बनी रही। 
इस कठोरता और सुकुमारता
का संगम ही गृहस्थ कहलाया। 
पुरुष अब तक पुरुषोचित व्यवहार
ही दिखाते रहे
स्त्री अब तक स्त्रियोचित व्यवहार ही
दिखाती रहीं। 
लेकिन अब इनके व्यवहारों में
असन्तुलन आने लगा है
परिणामस्वरूप गृहस्थ भी
गड़बड़ाने लगा है। 
पुरुषों को अनावश्यक दम्भ ले डूबा
तो स्त्रियों को अनावश्यक महत्वाकांक्षा ले डूबी। 
पुरुषों ने स्त्रियों को अपने घर लाकर सम्मान नहीं दिया
तो वहीं स्त्रियों ने पुरुषों के घर को मन से नहीं अपनाया। 
पेड़ रूपी पुरुष से स्त्री ने
लता बन आलिंगन तो ज़रूर किया
पर अति स्वार्थपरता और अति महत्वाकांक्षा के कारण
उस हरे भरे पेड़ के विकास को
अनजाने में ही अवरुद्ध कर दिया। 
स्त्री पुरुष के परिवार रूपी वटवृक्ष से
उस पुरुष रूपी शाखा को काटकर
अलग अपने सहूलियत के आधार पर रोपती है। 
पुरुष और उसका परिवार रूपी वटवृक्ष
अपना घर-बार छोड़ कर आयी
हुई स्त्री को स्नेहपूर्ण छाँव भी 
ठीक से नहीं देता है। 
स्त्रियों को पुरुष बिना घर परिवार का चाहिए होता है
तो वहीं पुरुष का परिवार स्त्रियों को नौकरानी समझता है। 
कुल मिलाकर सब वाद और भेदों को ताक पर
रखकर सोचा जाए
तो न केवल स्त्री बल्कि पुरुष भी
अपने अपने कर्त्तव्यों और धर्मों से च्युत हुए। 
परिणामस्वरूप स्वरूप घर-परिवार व समाज
की दशा और दिशा में ही आमूलचूल परिवर्तन हुआ; 
कहा जाए तो असन्तुलन ही हुआ। 

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