अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सारा शहर सो रहा है

मध्य रात्रि होने को आ गयी है
सारा शहर सो गया है।
गलियाँ सुनसान नज़र आ रहीं हैं
कुछ कुत्तों को छोड़कर;
उनमें से कुछ तो गलियों की रखवाली की बजाय
तान कर सो रहे हैं।
 
शराबी, जुआरी और कुछ झुग्गियों
में रहने वाले लोग भी हैं
जिनकी चहल-क़दमी और बुदबुदाहट से
यह शहर उनींद रहा है।
कुछ गायें भी बैठी हुई हैं
जो ऐसे जुगाली कर रही हैं
मानो  दिन में शहरवासियों ने उन्हें बहुत बड़ी
दावत दी हो।
 
मैं ये नज़ारा
अपनी बालकनी से देख रहा हूँ।
मैं शराबी, जुआरी कुछ भी नहीं हूँ
फिर भी उन्हीं की तरह जगा हुआ हूँ।
मेरे जागने का कोई कारण नहीं
बस सोते हुए शहर को देखने की तमन्ना है।
 
इसलिए  अब बालकनी से नीचे उतर कर
सूनी सड़कों पर घूमने आ गया हूँ।
कुछ अलौकिक साथी भी हैं
जो मेरे साथ घूमने आये हैं:
चाँद तारे और उनके साथ चाँदनी भी
आयी है इस शहर की सैर करने।
भीनी-भीनी ख़ुश्बू बिखेरते
हवा भी हमारे साथ तैर रही है।
 
सड़कें दिन भर की
थकी हुई हैं और स्वप्नों में खोई हुई हैं।
मैं भी उन पर बिना कोई आहट किए
घूम रहा हूँ आहिस्ते आहिस्ते
ताकि उनका स्वप्न नहीं टूट जाये।
बेचारी  सड़कों को सुकून से सोने को
रात ही तो मिलती है।
 
क़रीब आधा घण्टा घूमने के बाद
मुझे लगा कि मैं इस सोये हुए शहर को
तंग कर रहा हूँ।
क्योंकि  शहर के कुछ पहरेदार
अब मेरे इस प्रकार रात्रि में
बेबाक घूमने से परेशान दिखने लगे।
क्योंकि मेरे लाख आहिस्ता चलने के बावजूद
मेरे क़दमों की आहट से 
वे जग चुके थे ।
कुछ तो उनमें से भोंकते हुए मेरे पीछे  भी पड़ लिए
तब मैंने  अपना घर नापने में ही
अपनी भलाई समझी।
क्योंकि वे पहरेदार रात्रि में सिर्फ़
कुछ ख़ास लोगों को ही
इस तरह घूमने की या जागने की अनुमति
देते हैं;
और वे लोग अभी भी उन सड़कों पर
झूमते हुए नज़र आ रहे हैं
और कुछ गलियों के कोनों में
रोडलाइट्स के नीचे
ताश के पत्तों को हाथ में लिए
मुँह से बीड़ी का धुआँ छोड़ते हुए
अपने कर्मस्थल पर  अपना कर्तव्य  बख़ूबी निभा रहे हैं॥

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

लघुकथा

कहानी

सामाजिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. प्रेम का पुरोधा