सारा शहर सो रहा है
काव्य साहित्य | कविता प्रवीण कुमार शर्मा1 Sep 2021 (अंक: 188, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
मध्य रात्रि होने को आ गयी है
सारा शहर सो गया है।
गलियाँ सुनसान नज़र आ रहीं हैं
कुछ कुत्तों को छोड़कर;
उनमें से कुछ तो गलियों की रखवाली की बजाय
तान कर सो रहे हैं।
शराबी, जुआरी और कुछ झुग्गियों
में रहने वाले लोग भी हैं
जिनकी चहल-क़दमी और बुदबुदाहट से
यह शहर उनींद रहा है।
कुछ गायें भी बैठी हुई हैं
जो ऐसे जुगाली कर रही हैं
मानो दिन में शहरवासियों ने उन्हें बहुत बड़ी
दावत दी हो।
मैं ये नज़ारा
अपनी बालकनी से देख रहा हूँ।
मैं शराबी, जुआरी कुछ भी नहीं हूँ
फिर भी उन्हीं की तरह जगा हुआ हूँ।
मेरे जागने का कोई कारण नहीं
बस सोते हुए शहर को देखने की तमन्ना है।
इसलिए अब बालकनी से नीचे उतर कर
सूनी सड़कों पर घूमने आ गया हूँ।
कुछ अलौकिक साथी भी हैं
जो मेरे साथ घूमने आये हैं:
चाँद तारे और उनके साथ चाँदनी भी
आयी है इस शहर की सैर करने।
भीनी-भीनी ख़ुश्बू बिखेरते
हवा भी हमारे साथ तैर रही है।
सड़कें दिन भर की
थकी हुई हैं और स्वप्नों में खोई हुई हैं।
मैं भी उन पर बिना कोई आहट किए
घूम रहा हूँ आहिस्ते आहिस्ते
ताकि उनका स्वप्न नहीं टूट जाये।
बेचारी सड़कों को सुकून से सोने को
रात ही तो मिलती है।
क़रीब आधा घण्टा घूमने के बाद
मुझे लगा कि मैं इस सोये हुए शहर को
तंग कर रहा हूँ।
क्योंकि शहर के कुछ पहरेदार
अब मेरे इस प्रकार रात्रि में
बेबाक घूमने से परेशान दिखने लगे।
क्योंकि मेरे लाख आहिस्ता चलने के बावजूद
मेरे क़दमों की आहट से
वे जग चुके थे ।
कुछ तो उनमें से भोंकते हुए मेरे पीछे भी पड़ लिए
तब मैंने अपना घर नापने में ही
अपनी भलाई समझी।
क्योंकि वे पहरेदार रात्रि में सिर्फ़
कुछ ख़ास लोगों को ही
इस तरह घूमने की या जागने की अनुमति
देते हैं;
और वे लोग अभी भी उन सड़कों पर
झूमते हुए नज़र आ रहे हैं
और कुछ गलियों के कोनों में
रोडलाइट्स के नीचे
ताश के पत्तों को हाथ में लिए
मुँह से बीड़ी का धुआँ छोड़ते हुए
अपने कर्मस्थल पर अपना कर्तव्य बख़ूबी निभा रहे हैं॥
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