प्रकृति
काव्य साहित्य | कविता प्रवीण कुमार शर्मा15 Mar 2021 (अंक: 177, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
प्रकृति कुछ कह रही है
सुनो, मगर हृदय के कानों से
देखो वो हमें पुकार रही है।
नदिया है पुकारती
कल कल करती दे रही पैग़ाम
जीवन पथ पर आगे बढ़ते रहने का. . . अविराम।
पर्वत भी तो अपनी ऊँचाई से
मानव-जन को करते अभिभूत
ऊँचा उठो, मत रुको लक्ष्य प्राप्ति तक; न होकर पराभूत।
सागर भी तो दे रहा संदेश
अपनी गहराई में गोता लगा
खोज लाने को
सारे ख़ज़ाने अनिमेष।
कलरव करते पक्षी हमें बुला रहे
हवा को चीरकर
आकाश छूने।
बरसता सावन है आतुर
हमें भिगोने को
प्रेम जल में कर सराबोर होने को कामातुर।
पीली सरसों सौंदर्य बिखेरती
मानुष मन को कर प्रफुल्लित
बसंत आगमन की ख़ुशी में झूमती।
प्रकृति पर्याय है अध्यात्म का
भौतिकता कुछ हद तक ही सही,
वरना समझो इसे तुम अंजाम विनाश का।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अगर इंसान छिद्रान्वेषी न होता
- अगर हृदय हो जाये अवधूत
- अन्नदाता यूँ ही भाग्यविधाता . . .
- अस्त होता सूरज
- आज के ज़माने में
- आज तक किसका किस के बिना काम बिगड़ा है?
- आज सुना है मातृ दिवस है
- आवारा बादल
- कभी कभी जब मन उदास हो जाता है
- कभी कभी थकी-माँदी ज़िन्दगी
- कविता मेरे लिए ज़्यादा कुछ नहीं
- काश!आदर्श यथार्थ बन पाता
- कौन कहता है . . .
- चेहरे तो बयां कर ही जाया करते हैं
- जब आप किसी समस्या में हो . . .
- जब किसी की बुराई
- जलती हुई लौ
- जहाँ दिल से चाह हो जाती है
- जीवन एक प्रकाश पुंज है
- जेठ मास की गर्माहट
- तथाकथित बुद्धिमान प्राणी
- तेरे दिल को अपना आशियाना बनाना है
- तेरे बिना मेरी ज़िन्दगी
- दिनचर्या
- दुःख
- देखो सखी बसंत आया
- पिता
- प्रकृति
- बंधन दोस्ती का
- बचपन की यादें
- भय
- मन करता है फिर से
- मरने के बाद . . .
- मृत्यु
- मैं यूँ ही नहीं आ पड़ा हूँ
- मौसम की तरह जीवन भी
- युवाओं का राष्ट्र के प्रति प्रेम
- ये जो पहली बारिश है
- ये शहर अब कुत्तों का हो गया है
- रक्षक
- रह रह कर मुझे
- रहमत तो मुझे ख़ुदा की भी नहीं चाहिए
- रूह को आज़ाद पंछी बन प्रेम गगन में उड़ना है
- वो सतरंगी पल
- सारा शहर सो रहा है
- सिर्फ़ देता है साथ संगदिल
- सूरज की लालिमा
- स्मृति
- क़िस्मत की लकीरों ने
- ज़िंदगानी का सार यही है
लघुकथा
कहानी
सामाजिक आलेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं