मुखिया
काव्य साहित्य | कविता डॉ. परमजीत ओबराय15 May 2020 (अंक: 156, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
मुखिया तभी याचना करते-
जब होते हैं परेशान,
देखकर न जाने –
नहीं रहे कहना उनका मान।
नहीं है इसमें केवल –
उनकी भलाई,
वे चाहते हैं-
उनके आँगन की,
न रहे कोई कली मुरझाई।
हाथ जोड़-
कर रहे वे निवेदन,
जानें कैसे हैं वे लोग?
जिनके हृदय-
व दिमाग़ में,
है न कोई स्पंदन।
उनका विनम्र होना-
दीन न समझा जाए,
न जाने किस-
गुमान में हैं सब?
बात समझ न पाए।
घर रह कर संतुष्टि ही पाएँ –
न जाएँ घर से दूर,
बाहर कोई भयानक आहट –
न सता जाए।
शायद ज़्यादा सामाजिक होना-
पड़ रहा है आज भारी,
क्योंकि दुनिया पूरी सिमटने लगी-
अपने–अपने घरों में सारी।
घर रहकर शुभ विचारों का-
करें ध्यान,
बीमारी से दूर रहकर-
करें अपना परिवार,
देश का ही नहीं-
अपितुविश्व का भी,
उद्धार, सम्मान व कल्याण।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- इंटरनेट दुकान
- कुर्सी
- कोरोना क्यों?
- घृणा
- चक्र
- चक्र
- चाह
- जन्म लेते ही
- जैसे . . .जैसे तुम
- तुम
- दर्पण
- दुनिया
- दूरियाँ
- देना होगा
- नर संहार
- पापी
- पृथ्वी
- पैसा
- बच्चे
- बहुत रोने का मन करता है
- मनुष्य
- माँ की कोई उम्र नहीं होती
- माँ-पिता
- माँ–बाप
- मुखिया
- मुट्ठी भर नहीं चाहिए
- रे मन
- विचरण
- शब्दो
- शरीर घट में
- सन्तान
- समय की आग
- हल
- ज़हर
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं