पैसा
काव्य साहित्य | कविता डॉ. परमजीत ओबराय1 Jul 2022 (अंक: 208, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
पैसे के पीछे–
मनुष्य भाग रहा ऐसे,
पकड़म-पकड़ाई का खेल–
खेल रहा हो जैसे।
पुकार रहा–
उसे,
आ-आ छू ले मुझे।
सुन उसकी ललकार–
मानव है,
पाने को उसे बेक़रार।
करता जबकि यही–
भेदभाव,
सम्बन्धों का बन रहा–
आज यही आधार।
अपने लगने लगे–
सब इसके,
समक्ष अब पराए।
संसार से आगे–
साथ न यह,
दे पाए।
माना पैसा ज़रूरी है–
जीने के लिए,
पर सब कुछ नहीं है–
यह हमारे लिए।
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