चक्र
काव्य साहित्य | कविता डॉ. परमजीत ओबराय1 Dec 2020 (अंक: 170, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
वर्षा के दिन देख–
सहसा कुछ कीट पतंगे,
मन हो जाता है व्यग्र।
सोचकर यह कि–
हम भी थे कभी उन जैसे,
आज हमें है घृणा उनसे।
कभी उन्हें भी होती होगी हमसे–
जब वे थे मनुष्य।
घृणा का यह चक्र
दिन प्रतिदिन होता जा रहा है
वक्र।
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