कुर्सी
काव्य साहित्य | कविता डॉ. परमजीत ओबराय1 Oct 2020 (अंक: 166, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
कुर्सी पर बैठते ही
या कुर्सी मिलने पर
ईमान
बेच देते हैं लोग
यह सच है
प्रतिष्ठा खो देते हैं लोग
यह सच है।
आज तक
पढ़ते सुनते आए थे
आज स्वयं देखा है
इस खोखले आवरण को।
भीतर मकड़ी के जाले की तरह
फैलता जा रहा है ज़हरीला
ईर्ष्या या द्वेष का विष।
इसका पान कौन करेगा
या नष्ट करेगा उसे
नरसिंह अवतार की तरह?
प्रतिष्ठित की पहचान है प्रतिष्ठा बनाए रखने में
न कि कुर्सी की आड़ में
गौरखधंधा करते हुए।
जिनपर कृत्रिमता की
तह जमती आ रही है
डिस्टेम्पर की तरह।
जिसके नीचे से पुराना डिस्टेम्पर
अपनी प्रतिष्ठा लिए दिखता है
जब तक उसे खरोंचा न जाए
कुर्सी का झगड़ा होता आया
इस कलयुग में
तभी से सही व्यक्ति को कभी कुर्सी नहीं मिली
कुर्सी में फैला है स्वार्थ कैंसर की तरह
जो स्व को भी बना देता है रोगी।
कुर्सी है सूर्य चंद्र बीच राहू की तरह
कोई नहीं है अपना
यहाँ सब हैं पराए
जग है एक नाव
जिसमें बैठ तैरना है
झंझावतों को सह
दूर जा जीवन नैया को पार
लगाना है
जग है खेल इसे खेलना है
जीना है
जी हाँ जीना है इसमें।
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