सन्तान
काव्य साहित्य | कविता डॉ. परमजीत ओबराय15 Dec 2021 (अंक: 195, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
सन्तान है मेरा-
जीने का आधार,
कैसे रहूँ?
अब मैं उसके बग़ैर।
उसमें बसते हैं मेरे प्राण,
कैसे करूँ इससे इंकार?
भगवान की है वह—
दिया अनुपम उपहार,
वरना—
जीना था बेकार।
कितने गुण हैं उसके
नहीं कर सकूँ मैं बखान,
केवल वह हो साथ मेरे
नहीं फिर मुझे—
किसी का ध्यान।
जीती हूँ देख मैं—
उसकी मुस्कान,
जो देती मेरे मन को
एक अद्भुत सा विश्राम।
जीवन जितना है बचा—
चाहूँ उसके संग बीते,
क्योंकि सब रिश्ते लगें
मुझे स्वार्थ से भीगे।
कामना है मेरी सदा वह मुस्काए,
जीवन में कोई भी दुःख—
न पास उसके आए।
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