ज़हर
काव्य साहित्य | कविता डॉ. परमजीत ओबराय1 Mar 2021 (अंक: 176, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
घृणा रूपी ज़हर फैलता जा रहा,
मानव में–
दिन प्रतिदिन।
उगलकर ज़हर–
स्वयं स्वस्थ नहीं,
होना चाह रहा है मानव।
स्वार्थ की गंध भरी है–
उसमें ठूँस–ठूँसकर,
परमार्थ तो रह गया –
ज्यों उससे बिछुड़कर।
कमियाँ दूसरों में देखना–
हो गया व्यवहार उसका,
गुणों को रख दिया–
उसने यूँ धरा का धरा।
किंचित कर मन चिंतन,
कैसे सफल होगा तेरा जीवन?
ले शरण उस ईश की नित्य–
जो धो सके,
पाप तेरे अद्वितीय।
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