दूरियाँ
काव्य साहित्य | कविता डॉ. परमजीत ओबराय15 Dec 2022 (अंक: 219, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
दूरियाँ बढ़ रहीं हैं क्योंकि—
बढ़ गईं हैं,
किसी और से नज़दीकियाँ।
मोबाइल हो गए प्रमुख—
छिनती जा रहीं,
रिश्तों की नज़दीकियाँ।
अपनों की उपेक्षा कर—
दूसरों से नेह बढ़ाते,
क्या यही रिश्ते हैं—
आज के,
हम समझ न पाते।
मोबाइल के हो गए—
सब क़ायल,
होते हैं जिनसे—
बहुत से हृदय घायल।
अपने-अपने में हैं—
व्यस्त आज के युवा,
क्या रह पाएँगे वे—
केवल चुनिंदा चीज़ों के लायक़।
शोक में है यह पीढ़ी—
अभिभावकों व शिक्षकों की,
जिन्हें देखते अब—
व्यस्त रहते हैं सदा,
किसी और के साथ व्यस्त।
शायद भूख कोई—
बढ़ती जा रही,
वजह से जिसके—
नव पीढ़ी कुछ गुमराह हो रही।
हो जाए ईश की अनुकंपा—
इन पर भारी,
सबकी बुद्धि हो जाए—
नित न्यारी,
भविष्य सुधार कर अपना—
चलें अपने पथ पर,
हैं जिनके वे अधिकारी।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- इंटरनेट दुकान
- कुर्सी
- कोरोना क्यों?
- घृणा
- चक्र
- चक्र
- चाह
- जन्म लेते ही
- जैसे . . .जैसे तुम
- तुम
- दर्पण
- दुनिया
- दूरियाँ
- देना होगा
- नर संहार
- पापी
- पृथ्वी
- पैसा
- बच्चे
- बहुत रोने का मन करता है
- मनुष्य
- माँ की कोई उम्र नहीं होती
- माँ-पिता
- माँ–बाप
- मुखिया
- मुट्ठी भर नहीं चाहिए
- रे मन
- विचरण
- शब्दो
- शरीर घट में
- सन्तान
- समय की आग
- हल
- ज़हर
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं