बहुत रोने का मन करता है
काव्य साहित्य | कविता डॉ. परमजीत ओबराय1 Dec 2023 (अंक: 242, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
बहुत रोने का मन करता है—
हाँ, ममा,
आपसे मिलने का जी करता है।
बहुत दिन हो गए–
दिन नहीं वर्षों हो गए,
अब तो आ जाएँ–
मुझे मिलने,
अकेले जान, मन अस्थिर होता है,
हाँ, ममा,
आपसे मिलने का जी करता है।
थक गई हूँ–
जीते-जीते,
आपके साथ बातें,
करने का जी
करता है।
हाँ, ममा,
आपसे मिलने का जी करता है।
जानती हूँ आप नहीं
आएँगी–
किन्तु न जाने क्यों,
मन अपना ही इस झूठी इच्छा से—
बहलाने का जी करता है
हाँ, ममा,
आपसे मिलने का जी करता है।
बहुत मुश्किल हो गया है–
अब ख़ुश रहना,
दिखावी मुस्कान से—
मुँह मोड़ने का मन करता है,
हाँ, ममा,
आपसे मिलने का जी करता है।
स्वयं माँ हूँ–
जानती हूँ,
जाना है आपकी तरह–
किन्तु संतान अपनी को–
छोड़ने से मन डरता है,
हाँ, ममा,
आपसे मिलने का जी करता है।
क्या मेरे बच्चे भी
ऐसा सोचते होंगे?
सोच-सोच के–
जीने का मन करता है,
हाँ, ममा,
आपसे मिलने का जी करता है।
दिन कटता है–
याद कर-करके आपको,
बेटी आपकी हूँ सोच–
मन गर्व करता है,
किन्तु
आपसे मिलने का जी करता है।
काश आ जाएँ आज . . .
सपने में मेरे,
इच्छा कर फिर घबराकर कि—
सपना सच होगा या नहीं,
जाग-जाग के—
आपको सोचना अच्छा लगता है,
हाँ, ममा,
आपसे मिलने का जी करता है।
जीवन एक नाटक है—
हम पात्र है यहाँ,
जानकर भी अनजान–
जाने क्यूँ होने का,
तर्क न समझ आता है . . .
बहुत रोने का मन करता है,
हाँ, ममा,
आपसे मिलने का जी करता है।
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