दुनिया
काव्य साहित्य | कविता डॉ. परमजीत ओबराय1 Nov 2021 (अंक: 192, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
दुनिया है-
थोड़े दिन का मेला,
फिर इंसान-
इस बात को-
क्यों भूला?
कि मेला नहीं रहता-
सदा।
अपने हृदय गह्वर में डूब-
मन रूपी तरंगों को,
हिलोरें लेने दे ख़ूब।
मचने दे –
उथल-पुथल,
फिर कर मंथन-
अपनी भावनाओं का।
नवनीत बन –
जो निकले,
भाव उनका कर संचय-
करके दृढ़ संकल्प।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- इंटरनेट दुकान
- कुर्सी
- कोरोना क्यों?
- घृणा
- चक्र
- चक्र
- चाह
- जन्म लेते ही
- जैसे . . .जैसे तुम
- तुम
- दर्पण
- दुनिया
- दूरियाँ
- देना होगा
- नर संहार
- पापी
- पृथ्वी
- पैसा
- बच्चे
- बहुत रोने का मन करता है
- मनुष्य
- माँ की कोई उम्र नहीं होती
- माँ-पिता
- माँ–बाप
- मुखिया
- मुट्ठी भर नहीं चाहिए
- रे मन
- विचरण
- शब्दो
- शरीर घट में
- सन्तान
- समय की आग
- हल
- ज़हर
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं