दुनिया
काव्य साहित्य | कविता डॉ. परमजीत ओबराय1 Nov 2021 (अंक: 192, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
दुनिया है-
थोड़े दिन का मेला,
फिर इंसान-
इस बात को-
क्यों भूला?
कि मेला नहीं रहता-
सदा।
अपने हृदय गह्वर में डूब-
मन रूपी तरंगों को,
हिलोरें लेने दे ख़ूब।
मचने दे –
उथल-पुथल,
फिर कर मंथन-
अपनी भावनाओं का।
नवनीत बन –
जो निकले,
भाव उनका कर संचय-
करके दृढ़ संकल्प।
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