साथ चलोगे
कथा साहित्य | कहानी संजय मृदुल1 Mar 2022 (अंक: 200, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
वाट्सप पर रुचि को मैसेज करते वक़्त वह थोड़ा घबराया हुआ था, रुचि ने उसके वाट्सप स्टेटस को देखकर थम्बसअप का इशारा भी किया था, और उसकी डीपी की तारीफ़ की थी, लेकिन उसके आगे?
उसने कुछ मेसेज नहीं किया। कॉलेज के लिए तैयार होते वक़्त उसकी एक आँख घड़ी की ओर थी दूसरी फ़ोन पर, लेकिन नेटवर्क ग़ायब। देश को फ़ोर जी में ले जाओ या फ़ाइव जी में, कोई जी काम नहीं करता, न कहीं जी लगता है।
उसका जी उचट गया।
मेट्रो में बैठते वक़्त बस गुड मॉर्निंग लिखा उसने। नज़रें मोबाइल पर ज़मीं रहीं बदस्तूर। प्रतीक्षारत।
पहले मेसेज डिलीवर हुआ, फिर एक टिक का निशान, फिर दो नीली धारियाँ।
मेसेज पढ़ लिया है उसने। चेहरे पर संतोष के भाव आये।
“सुनो! तुम कुछ कहना चाहते हो?” रुचि ने अंशुल को मेसेज किया।
अंशुल हतप्रभ रह गया, समझ नहीं आया क्या जवाब दे, क्या कहे? पूरे छह साल के बाद ये पूछा था रुचि ने।
अंशुल को जवाब न देता देख कर रुचि ने ही लिखा, “शाम को मिल सकते हो, वहीं?”
“जी ज़रूर, “इतना लिखने में भी अंशुल की साँस अटकी हुई थी।
“ठीक है, पाँच बजे, “रुचि ने मुस्कान वाली इमोजी डाली और ऑफ़लाइन हो गयी।
विश्वविद्यालय के पास एक रेस्टोरेंट है। अभी साढ़े चार बजे थे अंशुल आकर बैठ गया, परमानेंट सीट पर। उसे लगा आज तो बिल्कुल भी देर नहीं होनी चाहिए। समय जैसे रुक सा गया था उसकी घड़ी में। और वो चला गया छह साल पहले जब उसने यहाँ दाख़िला लिया था।
ये देश का भी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है, उसका सपना था कॉलेज में प्रोफ़ेसर बनना और इस लक्ष्य को पाने के लिए ये सबसे अच्छी जगह थी। एक दिन ख़ाली समय में दोस्तों के साथ टहलते हुए अंशुल की नज़र पड़ी रुचि पर। कुछ और लड़कियाँ साथ थीं, उसके बालों पर जो कमर से बहुत नीचे तक दो चोटियों की शक्ल में गुँथे हुए थे। उसने रुचि का चेहरा भी नहीं देखा था पर उसका दिल ज़ोरों से धड़क गया। लगा, यही तो है वो ख़्वाबों की परी।
लड़कपन की दहलीज़ छोड़ कर जवानी में क़दम रखती ज़िन्दगी में ऐसी जाने कितनी कल्पनाएँ, कितनी परियाँ, कितनी नायिकाएँ ख़्वाबों में जगाती हैं ये हर कोई जानता है। अंशुल तेज़ी से आगे निकला और मुड़ कर देखा उसकी तरफ़।
साँवला रँग, लंबा क़द और औसत सा व्यक्तित्व। पर कुछ तो था रुचि में जो अंशुल को बाँध गया।
अब शुरू हुई क़वायद रुचि के बारे में जानने की। दोस्तों से लेकर केंटीन के छोटू से होते हुए चपरासी तक दौड़ लगाई गई पर कुछ हाथ न आया। इतना बड़ा विश्विद्यालय जहाँ हज़ारों बच्चे पढ़ते हों वहाँ किसी एक की जानकारी निकालना सागर में से मोती तलाशने जैसा दुष्कर था। पर जहाँ चाह वहाँ राह। एक दिन लाइब्रेरी में फिर दर्शन हो गए अनायास। अंशुल ने वहाँ क्लर्क को पटाया, केंटीन में लन्च का सौदा किया तब जाकर उसे क्लर्क ने रुचि का कार्ड दिखाया।
क्लास-बीकॉम सेकेंड ईयर, सेक्शन-सी, नाम-रुचि शर्मा। बस इतना काफ़ी था अंशुल के लिए। अब जैसा कि होता है नए नए आशिक़ की तरह अंशुल आगे-पीछे मँडराने लगे। उसके कॉलेज आने से लेकर वापस जाने तक जब भी अवसर मिलता। दर्शन लाभ के लिए लालायित अंशुल आसपास दिखाई देता।
ईश्वर ने नारी को कुछ अलग सी शक्ति दी है, हर देखने वाली नज़र, आसपास रहने वाले शख़्स की हरकतें सब उनके राडार के पकड़ में आ जाती हैं। अंशुल की गतिविधियाँ भी अछूती न थीं इससे। एक दिन केंटीन में अंशुल रुचि के बिल्कुल पीछे बैठा था कि रुचि ने अपनी सहेली से कहा, “यार आजकल तो जूनियर भी लाइन मारने लगे हैं सीनियर को। हिम्मत देखो इनकी। अरे पढ़ने आये हो पढ़ाई करो। केरियर बनाओ पहले। ये इश्क़-इश्क़ सब बेकार है। मैं तो बिल्कुल यक़ीन नहीं करती इन पर।
अंशुल को समझ आ गया कि ये तीर उसे लक्ष्य करके छोड़ा गया है। उस दिन के बाद उसने पीछा करना छोड़ दिया। पर चूँकि कुछ विषय दोनों के एक थे तो रुचि का आर्ट्स विभाग में आना होता था। वो ख़ामोशी से उसे देख लेता। उसे भी लगा मजनूँ की तरह भटकने से बेहतर है कुछ कर के दिखाया जाए जिससे अच्छा असर पड़े रुचि पर।
वो एक साल आगे थी, पर कभी-कभी कोई क्लास एक साथ लगती। तो कभी किसी सेमिनार में साथ होने का मौक़ा मिल जाता। सामान्य सी बातचीत होने लगी थी उनमें। कभी पढ़ाई को लेकर कभी ग्रुप में एक साथ हो तो। पर वो अपनी भावनाओं को बाँध कर रखता। समय के साथ उसका आकर्षण प्यार में बदल रहा था। पर वो बिल्कुल नहीं चाहता था कि रुचि को पता चले। जब भी दोनों साथ होते वो नज़र झुकाए रखता। कम बोलता।
साल गुज़र गए दोनों ग्रेजुएशन कर पोस्ट ग्रेजुएशन में आ गए। पर हालात वहीं के वहीं। रुचि जहाँ पढ़ाई में सामान्य थी वहीं अंशुल लगातार प्रथम आ रहा था।
दोनों में काम चलाऊ दोस्ती हो गयी थी। रुचि अंशुल की भावनाओं को समझती थी पर पूरी तरह अनजान बनी रहती। अंशुल ने भी कुछ न कहने की जैसे क़सम खाई हुई थी। बस वो रोज़ उसके आने के समय पर नियत स्थान पर रहता, उसे एक नज़र देखता और चला जाता। न कभी उसने रोका न रुचि ने रुककर पूछा कि क्यों खड़े रहते हो यूँ।
पोस्ट ग्रेजुएशन भी हो गया। रुचि तो पहले ही पीएच। डी। में आ गयी थी। दोनों के विषय अलग थे मगर समूह एक ही था। बिल्डिंग एक थी तो सारा दिन वो रुचि को देख लेता था। लगभग सब ख़त्म होने को था। थीसिस जमा हो गयी वायवा भी हो गया। बस अब डिग्री का इंतज़ार है।
“हेलो!” रुचि की मीठी आवाज़ से अंशुल वापस वर्तमान में आया।”कब से बैठे हो?”
“कुछ देर हुआ। तुम कब आई?”
“बस अभी। तुम इतने खोए हुए थे कि तुम्हें पता ही नहीं चला।
“आज ख़ास दिन है। क्या खिलाओगे?” रुचि ने सवाल किया।
“ख़ास कुछ तो मिलने से रहा यहाँ। हाँ मैं ज़रूर कुछ लाया हूँ। पहले कॉफ़ी ऑर्डर कर लें।”
रुचि ने सहमति दी, “ठीक है, मँगाओ।”
“एक बात बताओ। आज मुझपर क्यों नज़रे-इनायत हुई? क्या कर दिया मैंने?” अंशुल ने सवाल किया।
“कुछ नहीं। अब पढ़ाई ख़त्म होने वाली है। कुछ दिन में तुम अपने रस्ते मैं अपने। तक़दीर देखो मैं एक साल सीनियर थी तुमसे और आज एक साथ पीएच। डी। कर रहे। साथ ही डिग्री लेंगे।
“एक बात कहनी थी तुमसे, तुम्हें याद है जब तुम यहाँ आये थे, मेरे पीछे पड़े रहते थे सारा दिन। मैंने कहा था जूनियर सीनियर को लाइन मारने लगे हैं और भी बहुत कुछ। उस दिन के बाद से तुम ख़ामोशी से दूर रहने लगे मुझसे। न पीछा करते न नज़र मिलाते न ही कोई कमेंट्स करते। उस समय मुझे लगा नई-नई उम्र का फ़ितूर है उतर जाएगा वक़्त के साथ।
“फिर तुम अच्छे लगने लगे मुझे। सब के साथ तुम्हारा अच्छा व्यवहार, तुम्हारी ख़ामोशी, केरियर को लेकर गम्भीरता। ये सब मेरे मन को बाँधने लगा। छह साल हो गए तुम्हें, पर एक दिन भी ज़ाहिर नहीं किया तुमने की तुम प्यार करते हो मुझे। तुम्हारी आँखें बहुत पारदर्शी हैं, जब तुम मेरे सामने होते हो न, ये इतने रंग बदलती हैं कि मैं सब समझ जाती हूँ जो तुम कहना चाहते। पर मुझे लगा तुम्हारे भविष्य को पहले पुख़्ता होने दें। इस प्यार के फेर में पड़कर कुछ खो न जाये दोनों का।
“तो आज मैंने तुम्हें इसलिये यहाँ बुलाया है अंशुल, कि आज सब कुछ साफ़ कर दिया जाए। तुम कभी बोलोगे नहीं ये जानती हूँ मैं। मेरे बड़े होने वाली बात गाँठ सी जमी हुई है तुम्हारे मन में।
“तो मैं आज तुमसे कहती हूँ—मैं प्यार करती हूँ तुमसे। मैं सारा जीवन साथ बिताना चाहती हूँ तुम्हारे। क्या तुम मेरा प्यार स्वीकार करोगे?”
अंशुल के शब्द कहीं खो गए थे, साँसें बेलगाम हो गयी थीं और होश सातवें आसमान पर।
उसने अपने बैग से एक पैकेट निकाला, रुचि से कहा, “माँ ने लड्डू भेजे हैं, ये खाओगी?”
“अंशुल! क्या तुम मेरे जीवन में इसी तरह मिठास भरते रहोगे?”
अंशुल ने एक लड्डू रुचि की तरफ़ बढ़ा दिया।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कहानी
लघुकथा
कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं