बूँदी सेव और गणतंत्र दिवस
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी संजय मृदुल1 Feb 2023 (अंक: 222, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
हम बालकनी में तिरंगा फहरा के नीचे आए ही थे की गेट से चित-परिचित आवाज़ सुनाई दी “भाई मृदुल, वंदे मातरम्। गणतंत्र दिवस अमर रहे।”
और जगमग करते मजनूँ भाई हमारी बैठक में अवतरित हुए। झक सफ़ेद पायजामा कुर्ता ऊपर से मोदी जैकेट और हाथों में आज दूध के डिब्बे की जगह एक पैकेट। ऐसा लग रहा था की अलसुबह किसी कार्यक्रम से होकर आ रहे हैं।
“क्या मियाँ भाई! इतनी सुबह सवेरे कहाँ झंडा लहरा आए,” हमने भी कम विदा लेती ठंड में अंगीठी को कुरेद दिया ताकि कमरे में थोड़ी गर्माहट आ जाए।
“भाई जान, मोहल्ले के स्कूल से आ रहे हैं। पार्षद महोदय मुख्य अतिथि थे और हम विशेष अतिथि। अब जनता जनार्दन चुनाव के बाद तो विशेष अतिथि ही बन कर रह जाती है। जब ज़रूरत पड़े तभी याद आती है।”
“और इस पैकेट में क्या है?” हमने प्रश्न किया।
“भाभी से बोलो चाय बनाएँ अदरक वाली तो खोलें इसे। स्वल्पाहार है भाई। आजकल समय किसके कने की कार्यक्रम के बाद बिठाएँ चंद बातें करें। ये पैकेट वाला सिस्टम सही है, कार्यक्रम ख़त्म हुआ, लाइन लगाकर सबको एक-एक पैकेट दो। समय भी बचता है, पैसे भी।”
“सही भी है मजनूँ भाई!” हमने कहा, ”आजकल समय की कमी तो सबको है।”
’काहे जनाब? आज के दिन काहे की कमी। राष्ट्रीय पर्व है और राष्ट्र के लिए समय नहीं? कौन देखता है आज दूरदर्शन पर परेड, कौन प्रधानमंत्री का उद्बोधन सुनता है? आज पर्व नहीं छुट्टी है। और कहीं शनिवार पड़ जाए तो सोने पे सुहागा। लोगन तो पिकनिक पर चले जाते हैं। ड्राई-डे के कारण व्यवस्था पहले से कर लेते हैं।
“ये वही स्कूल है जहाँ हम दोनों पढ़कर निकले हैं मियाँ। आज भी याद आती है उन दिनों की।”
“सही कहा मजनूँ भाई। क्या दिन थे वो!” हमने भी हामी भरी।
“आजकल तो नेताओं के भाषण बस टेलीप्रोम्प्टर की लिखावट बन कर रह गए हैं। उन्होंने पढ़ा और भूल गए, हमने एक कान से सुना, दूसरे से निकाल दिया। सात दशक में ये दोनों ही पर्व अब इवेंट बन कर रह गए हैं। कितना ख़र्चा करें, कितना शानदार आयोजन करें इसपर फ़ोकस रहता है सरकार का। सरकार मतलब? जी सही समझे।
“अब ये नाश्ते का पैकेट ही देखो। स्कूल में लगभग चार सौ लोग थे, आधे को मिले आधे को नहीं। पर बिल पूरे का बनेगा। मन गया गणतंत्र दिवस।
“जितना आगे जा रहे हैं ना भाई मियाँ उतना ही पतन हो रहा है हमारा। चरित्र से, काम से, नाम से। ना राष्ट्रभक्ति बची है ना ही देश से प्रेम। शेष है तो बस हम, हमारा। सोशल मीडिया पर झंडा लगा देने से, पैजामा कुर्ता पहन लेने से, और बालकनी पर झंडा लगा देने से देश प्रेमी नहीं बन जाता इंसान।”
उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से हम पर वार किया। पर हमने भी उनके शब्दों पर ना जाकर भाव समझते हुए मुस्कुराकर अनसुना किया और कहा, “सही कहा मजनूँ भाई। यहाँ तो इतना द्वेष भरा हुआ है मन में। देश से पहले जाति, धर्म हो गया है। छोटी-छोटी बात पर देशद्रोही का तगमा मिल जाता है। गणतंत्र का असली अर्थ तो भूलते जा रहे हैं सब।”
“और क्या? आज के बच्चों से पूछो ज़रा स्वतंत्रता दिवस गणतंत्र दिवस के बारे में। पहले वो सवाल करेंगे, इंग्लिश में क्या कहते हैं इन्हें? इन बच्चों को गाँधी, नेहरू, भगत सिंह की ड्रेस पहनाते हैं स्कूल वाले लेकिन मजाल हैं इन सब महामनाओं के बारे में बताएँ। ख़ाली कपड़े पहनाने, रूप धरने से सीख मिलती तो चरित्र का इतना पतन नहीं होता।”
तभी चाय आ गई। पैकेट खोलते हुए मजनूँ भाई ने सुर बदले, “भाई जान! जो लज़्ज़त आज के दिन बूँदी सेव में आती थी वो इस बासी समोसे, चिप्स और गुलाब जामुन में कहाँ?”
हमने जल्दी से गुलाब जामुन पर क़ब्ज़ा जमाया इससे पहले कि श्रीमती जी शुगर की दुहाई दें। और सोचने लगे कि पहले बिखरे हुए लोगों को बूँदी की तरह इकट्ठा कर लड्डू की शक्ल में बाँधा जाता था; तब समाज, देश एक सूत्र में बँधा नज़र आता था। सेव की शक्ल में थोड़ा नमक और बूँदी में शक्कर की तरह अलग-अलग धर्म जाति के लोग एक साथ रहा करते थे। अब तो कोई समोसा है, कोई चिप्स, कोई कैचअप का पाउच। सब की अपनी पहचान है, सभी एक दूजे से भिन्न।
अब वो अनेकता में एकता वाली बात कहाँ।
हमारे मुख से अनायास निकल गया “मेरा भारत महान!”
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