बिस्किट
कथा साहित्य | लघुकथा संजय मृदुल1 Sep 2022 (अंक: 212, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
रवि रोज़ सुबह कॉलोनी के गार्डन में सैर के लिए आता तो बिस्किट के कुछ पैकेट लेकर आता। गेट के बाहर सड़क पर कुत्तों का झुंड उसे देखते ही पास आ जाता। बड़े प्यार से वो सभी को बिस्किट खिला कर सैर करने आता। उसके इस काम की सभी तारीफ़ करते।
महानगर में किसी को फ़ुर्सत नहीं होती कि किसी के घर जाकर बैठे, गप्पें मारे। भले ही वो पड़ोसी क्यों न हो। सब की अपनी व्यस्तताएं, अपनी परेशानियाँ। आज रविवार है तो देर तक गार्डन में चहल-पहल थी, रवि रोज़ की तरह बिस्किट बाँट कर घूमने आया और ग्रुप में शामिल हो गया।
सैर ख़त्म हुई तो रवि को याद आया कि अंशुल को कुछ कागज़ात देने हैं, वो अंशुल को लेकर घर आ गया। अंशुल पहली बार उसके घर जा रहा था।
दरवाज़ा खुला तो सामने रवि के पिताजी थे। बुज़ुर्ग के चेहरे पर अव्यक्त सी पीड़ा छाई हुई थी।
“बेटा! नौ बज रहे हैं भूख लग रही है। बहू अभी उठी नहीं है। उसे उठा दो ज़रा,” बुज़ुर्ग ने अंशुल की उपस्थिति को नज़रअंदाज़ करते हुए कहा।
“अरे पापाजी! देर से सोए न रात में। इसलिये नहीं उठी होगी। आप किचन में देख कर कुछ खा लेते,” रवि ने जवाब दिया।
“कुछ नहीं है बेटा किचन में। तुम लोग तो बाहर गए थे ना। खाना नहीं बना था कल। दूध भी नहीं है फ़्रिज में,” पिता ने झिझकते हुए जवाब दिया।
रवि के चेहरे पर झल्लाहट दिख रही थी। किसी बाहर वाले के सामने इस तरह के दृश्य से उसकी इज़्ज़त बिगड़ रही थी।
उसने लोवर की जेब में हाथ डाला और एक बिस्किट का पैकेट उन्हें देते हुए बोला, “लीजिये जब तक कुछ बन न जाये तब तक इससे काम चलाइये।”
अंशुल के आँखों के सामने कॉलोनी के गेट के सामने का मंज़र झलकने लगा।
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