ज़िन्दगी रुकती नहीं
कथा साहित्य | कहानी संजय मृदुल1 Dec 2024 (अंक: 266, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
“शर्मा जी!” गेट के बाहर से ज़ोर से आवाज़ आई। मैंने पहचान तो ली आवाज़ लेकिन ज़रा सा हैरान हुआ। दीपक जी की आवाज़ सुनकर।
बाहर निकला तो देखा हमेशा की तरह दीपक जी पूरी तरह तैयार होकर खड़े हैं। अच्छा लगा उन्हें देख कर। चेहरे पर खिली मुस्कान के पीछे आँख की नमी को दबाये हुए वो आवाज़ दिए जा रहे थे मुझे।
“चलो यार वर्मा जी के यहाँ से हो आयें ज़रा। बहुत दिनों से देखा नहीं उसे।”
दो महीने पहले वर्मा की पत्नी का देहांत हो गया था तब से वो घर से बाहर निकले ही नहीं। घर जाओ तो बड़ी देर बाद आते और ऐसा लगता जैसे कोई उजड़ा हुआ पेड़ खड़ा हो सूनी टहनियाँ लिए। हम सभी उन्हें ‘मेड फ़ॉर ईच अदर’ कहते। कभी एक को किसी ने अकेला नहीं देखा। गोल्डन जुबली हो गयी थी शादी की फिर भी प्यार देखने लायक़ था उनका। लेकिन अचानक कुछ समय पहले तबियत बिगड़ी और छोटी-सी बीमारी के बाद वह गोलोक सिधार गयीं। वह दिन और आज का दिन वर्मा जी घर के अपने कमरे में बन्द होकर रह गए थे।
आज दीपक जी भी अपनी पत्नी की तेरहवीं के बाद पहली बार बाहर निकले थे। परसों ही तो हुई तेरहवीं। दीपक जी ज़िन्दगी को जीने में विश्वास रखने वाले व्यक्ति हैं। हर समय ज़िंदादिली ख़ुशमिज़ाज और हाज़िरजवाब। बड़ी नौकरी से रिटायर होकर अब कन्सलटेंट हो गए थे। सोशल सर्किल परिवार और जहाँ ज़रूरत हो वहाँ हाज़िर रहने वाले। मुझे ज़रा-सा आश्चर्य हुआ उन्हें आज देखकर।
हम जब पहुँचे तो वर्मा जी पेपर बाँचते बैठे थे। उदास निराश से। लग रहा था जैसे जाने क्या खो गया है। उदासी भरी मुस्कान से स्वागत किया तो दीपक जी ने गले लगा लिया। बोले, “तुम्हें बहुत मिस किया भाई। बीबी मेरी भी सिधारी तो लगा तुम ज़रूर आओगे दिलासा देने। ताज़ा-ताज़ा अनुभव है न तुम्हारा,” और हँस पड़े वो। वर्मा जी जैसे खिसिया से गये। दीपक जी के यहाँ गए नहीं थे एक भी दिन।
“क्या करूँँ यार, मन ही नहीं होता घर से निकलने का। पैर ही नहीं उठते अकेले। अब तो लगने लगा है कि भगवान मुझे भी बुला ले।”
“ग़ज़ब यार वर्मा! तुम तो मजनूँ लग रहे हो इस तरह बोलते हुए,” दीपक जी ठहाका लगा कर बोले। “भाई भाभी जी के जाने का दुख है और होना भी चाहिये। वाजिब भी है। लेकिन अपने जाने की बात! क्यों भाई?”
उनकी आवाज़ सुनकर बहू भी आ गयी। यह बात सुनकर कहने लगी, “देखिये न चाचाजी पापाजी ने तो अपने आप को क़ैद कर लिया है घर मेंं। दिन भर कमरे में बैठना और मम्मी जी की फोटो देखते रहना। आप ही समझाइये न। मैं आप लोगों के लिए कुछ खाने को लाती हूँ आपके साथ पापाजी भी कुछ खा लेंगे। वरना तो दिन भर में एक रोटी खा ली तो बड़ी बात है।”
“क्या भाई वर्मा ये क्या सुन रहा हूँ? ऐसा ग़ज़ब क्यों यार?”
“बस अब क्या कहूँ तुम्हें? तुम भी तो इसी दुख से गुज़र रहे हो। सब समझते हो।”
“न भाई, मैं तो नहीं समझता; तुम ही समझाओ।”
“क्या समझाऊँ? कितना दुख कितना अकेलापन कितना दर्द! क्या तुम नहीं महसूस कर रहे हो ये सब?”
“कर रहा हूँ न। कैसे नहीं करूँँगा? लेकिन जीना तो नहीं छोड़ दिया जाता न भगवान के पास जाने वाले के साथ। एक बात बताओ मुझे—क्या अरमान बाक़ी रह गए थे भाभी जी के?”
“कुछ नहीं,” वर्मा जी ने कहा।
“फिर? भाई पूरी ज़िन्दगी सुख से बिताई; भरा-पूरा परिवार सब सुख सुविधाएँ। चार धाम भी दर्शन करा लाये तुम तो। और क्या बचा जो तुम इस तरह से दुख मना रहे हो?
“देखो भैया! जाना तो सभी को है तुम्हारी पत्नी गयी मेरी भी। मुझे तो यह लगता है कि मेरी पत्नी भी बहुत सुख से गयी स्वर्ग। बेटा बहू ने भरपूर सेवा की। बिटिया ने भी भरपूर निभाया। ससुराल में हमारा नाम रौशन किया। नाती पोतों का सुख लिया। उसकी पसन्द से घर बना, सजाया-सँवारा उसने। जो भी चाहा पूरी कोशिश की मैंने की पूरा करूँ। जाते समय जितनी शान्ति उसके चेहरे पर थी न, उसे देखकर लगा कि भरपूर जी कर जा रही हैं।
“हाँ कमी खलती है उनकी। दिन भर ‘ए जी ए जी’ की पुकार नहीं सुनाई देती। मेरी परवाह करने वाली आवाज़ नहीं गूँजती। कमी तो ये भरी नहीं जा सकती न भाई। अब तो इस कमी के साथ जीना होगा।
“मैं तो यह मानता हूँ कि यह कह गयी है जाते-जाते कि अब बच्चों की ज़िम्मेदारी तुम्हारी है। मेरी कमी न खले उनको। तुम सम्हालना सब कुछ। और अगर मैं उदास हुआ या टूट गया तो घर को कौन सम्हालेगा। बड़ा तो मैं ही हूँ न घर मेंं।
“क्यों लगे कि माँ के जाते ही पापाजी भी जीना भूल गए। और बन्धु, जाने वाले के साथ कोई नहीं चला जाता। ईश्वर ने ऐसा कोई प्रावधान नहीं बनाया। अभी और इस चोले को कष्ट सहना लिखा है। तो क्यों न हँस कर सीना तान कर सहा जाए।
“वो भी ऊपर बैठ कर इस मुस्कान को देख कर ख़ुश ही होती होगी। उदास रहूँगा तो उसे लगेगा कमज़ोर हूँ मैं। ज़िम्मेदारी से जीवन भर नहीं भागा और अब रणछोड़दास क्यों बनूँ।
“एक ही ज़िन्दगी मिली है भाई मेरे। अच्छे से जी लो। जो हैं उनके लिए और जो चले गए उनकी नज़रों में न गिरो इसके लिए, समझे।
“कल से वापस दिनचर्या में आ जाओ। इससे पहले की बेटा बहू को बोझ लगने लगो, जीना शुरू कर लो।
“नहीं तो जीते जी मरा हुआ महसूस करने लगोगे जल्दी ही।”
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