अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

ज़िन्दगी रुकती नहीं

 

“शर्मा जी!” गेट के बाहर से ज़ोर से आवाज़ आई। मैंने पहचान तो ली आवाज़ लेकिन ज़रा सा हैरान हुआ। दीपक जी की आवाज़ सुनकर। 

बाहर निकला तो देखा हमेशा की तरह दीपक जी पूरी तरह तैयार होकर खड़े हैं। अच्छा लगा उन्हें देख कर। चेहरे पर खिली मुस्कान के पीछे आँख की नमी को दबाये हुए वो आवाज़ दिए जा रहे थे मुझे। 

“चलो यार वर्मा जी के यहाँ से हो आयें ज़रा। बहुत दिनों से देखा नहीं उसे।” 

दो महीने पहले वर्मा की पत्नी का देहांत हो गया था तब से वो घर से बाहर निकले ही नहीं। घर जाओ तो बड़ी देर बाद आते और ऐसा लगता जैसे कोई उजड़ा हुआ पेड़ खड़ा हो सूनी टहनियाँ लिए। हम सभी उन्हें ‘मेड फ़ॉर ईच अदर’ कहते। कभी एक को किसी ने अकेला नहीं देखा। गोल्डन जुबली हो गयी थी शादी की फिर भी प्यार देखने लायक़ था उनका। लेकिन अचानक कुछ समय पहले तबियत बिगड़ी और छोटी-सी बीमारी के बाद वह गोलोक सिधार गयीं। वह दिन और आज का दिन वर्मा जी घर के अपने कमरे में बन्द होकर रह गए थे। 

आज दीपक जी भी अपनी पत्नी की तेरहवीं के बाद पहली बार बाहर निकले थे। परसों ही तो हुई तेरहवीं। दीपक जी ज़िन्दगी को जीने में विश्वास रखने वाले व्यक्ति हैं। हर समय ज़िंदादिली ख़ुशमिज़ाज और हाज़िरजवाब। बड़ी नौकरी से रिटायर होकर अब कन्सलटेंट हो गए थे। सोशल सर्किल परिवार और जहाँ ज़रूरत हो वहाँ हाज़िर रहने वाले। मुझे ज़रा-सा आश्चर्य हुआ उन्हें आज देखकर। 

हम जब पहुँचे तो वर्मा जी पेपर बाँचते बैठे थे। उदास निराश से। लग रहा था जैसे जाने क्या खो गया है। उदासी भरी मुस्कान से स्वागत किया तो दीपक जी ने गले लगा लिया। बोले, “तुम्हें बहुत मिस किया भाई। बीबी मेरी भी सिधारी तो लगा तुम ज़रूर आओगे दिलासा देने। ताज़ा-ताज़ा अनुभव है न तुम्हारा,” और हँस पड़े वो। वर्मा जी जैसे खिसिया से गये। दीपक जी के यहाँ गए नहीं थे एक भी दिन। 

“क्या करूँँ यार, मन ही नहीं होता घर से निकलने का। पैर ही नहीं उठते अकेले। अब तो लगने लगा है कि भगवान मुझे भी बुला ले।” 

“ग़ज़ब यार वर्मा! तुम तो मजनूँ लग रहे हो इस तरह बोलते हुए,” दीपक जी ठहाका लगा कर बोले। “भाई भाभी जी के जाने का दुख है और होना भी चाहिये। वाजिब भी है। लेकिन अपने जाने की बात! क्यों भाई?” 

उनकी आवाज़ सुनकर बहू भी आ गयी। यह बात सुनकर कहने लगी, “देखिये न चाचाजी पापाजी ने तो अपने आप को क़ैद कर लिया है घर मेंं। दिन भर कमरे में बैठना और मम्मी जी की फोटो देखते रहना। आप ही समझाइये न। मैं आप लोगों के लिए कुछ खाने को लाती हूँ आपके साथ पापाजी भी कुछ खा लेंगे। वरना तो दिन भर में एक रोटी खा ली तो बड़ी बात है।” 

“क्या भाई वर्मा ये क्या सुन रहा हूँ? ऐसा ग़ज़ब क्यों यार?” 

“बस अब क्या कहूँ तुम्हें? तुम भी तो इसी दुख से गुज़र रहे हो। सब समझते हो।” 

“न भाई, मैं तो नहीं समझता; तुम ही समझाओ।” 

“क्या समझाऊँ? कितना दुख कितना अकेलापन कितना दर्द! क्या तुम नहीं महसूस कर रहे हो ये सब?” 

“कर रहा हूँ न। कैसे नहीं करूँँगा? लेकिन जीना तो नहीं छोड़ दिया जाता न भगवान के पास जाने वाले के साथ। एक बात बताओ मुझे—क्या अरमान बाक़ी रह गए थे भाभी जी के?” 

“कुछ नहीं,” वर्मा जी ने कहा। 

“फिर? भाई पूरी ज़िन्दगी सुख से बिताई; भरा-पूरा परिवार सब सुख सुविधाएँ। चार धाम भी दर्शन करा लाये तुम तो। और क्या बचा जो तुम इस तरह से दुख मना रहे हो? 

“देखो भैया! जाना तो सभी को है तुम्हारी पत्नी गयी मेरी भी। मुझे तो यह लगता है कि मेरी पत्नी भी बहुत सुख से गयी स्वर्ग। बेटा बहू ने भरपूर सेवा की। बिटिया ने भी भरपूर निभाया। ससुराल में हमारा नाम रौशन किया। नाती पोतों का सुख लिया। उसकी पसन्द से घर बना, सजाया-सँवारा उसने। जो भी चाहा पूरी कोशिश की मैंने की पूरा करूँ। जाते समय जितनी शान्ति उसके चेहरे पर थी न, उसे देखकर लगा कि भरपूर जी कर जा रही हैं। 

“हाँ कमी खलती है उनकी। दिन भर ‘ए जी ए जी’ की पुकार नहीं सुनाई देती। मेरी परवाह करने वाली आवाज़ नहीं गूँजती। कमी तो ये भरी नहीं जा सकती न भाई। अब तो इस कमी के साथ जीना होगा। 

“मैं तो यह मानता हूँ कि यह कह गयी है जाते-जाते कि अब बच्चों की ज़िम्मेदारी तुम्हारी है। मेरी कमी न खले उनको। तुम सम्हालना सब कुछ। और अगर मैं उदास हुआ या टूट गया तो घर को कौन सम्हालेगा। बड़ा तो मैं ही हूँ न घर मेंं। 

“क्यों लगे कि माँ के जाते ही पापाजी भी जीना भूल गए। और बन्धु, जाने वाले के साथ कोई नहीं चला जाता। ईश्वर ने ऐसा कोई प्रावधान नहीं बनाया। अभी और इस चोले को कष्ट सहना लिखा है। तो क्यों न हँस कर सीना तान कर सहा जाए। 
“वो भी ऊपर बैठ कर इस मुस्कान को देख कर ख़ुश ही होती होगी। उदास रहूँगा तो उसे लगेगा कमज़ोर हूँ मैं। ज़िम्मेदारी से जीवन भर नहीं भागा और अब रणछोड़दास क्यों बनूँ। 

“एक ही ज़िन्दगी मिली है भाई मेरे। अच्छे से जी लो। जो हैं उनके लिए और जो चले गए उनकी नज़रों में न गिरो इसके लिए, समझे। 

“कल से वापस दिनचर्या में आ जाओ। इससे पहले की बेटा बहू को बोझ लगने लगो, जीना शुरू कर लो। 

“नहीं तो जीते जी मरा हुआ महसूस करने लगोगे जल्दी ही।” 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

लघुकथा

कविता

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं