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सुबह का भूला

 

फ़ाइव स्टार होटल जैसा बड़ा अस्पताल, लॉबी में भीड़-भाड़ के बीच अल्पना अकेली बैठी है, कॉफ़ी शॉप की एक टेबल पर। कॉफ़ी से उठता धुँआ अल्पना की आँखों में उतर आया है। अल्पना के चेहरे पर तनाव झलक रहा है। अस्पताल का माहौल ऐसा होता है कि वहाँ अच्छे भले इन्सान का दिल बैठ जाए। वार्डों में कहीं पट्टियों में लिपटे मरीज़, किसी बिस्तर पर आँख बंद कर लेटे हुए इंसान के सिर के बाज़ू रखी मशीन की डरावनी आवाज़। आईसीयू के बाहर बैठे परिवार जनों के चेहरे पर लिखा इंतज़ार और किसी की आँखों में निराशा की झलक। अल्पना का यह पहला अवसर है जब उसे अस्पताल में एक जगह से दूसरी जगह भाग-दौड़ करनी पड़ रही है। 

पापाजी का ऑपरेशन चल रहा है, उन्हें दो दिन पहले सुबह-सुबह सीने में दर्द उठा। अल्पना ने नौकर की मदद से जैसे-तैसे कार से लाकर उन्हें अस्पताल में भर्ती किया। पता चला धमनियों में ब्लॉकेज है। तात्कालिक उपचार और जाने कितने टेस्ट के बाद आज ऑपरेशन हो रहा है। 

अल्पना को समझ नहीं आ रहा है किसे कॉल करे। ख़ुद पर उसे भरोसा नहीं हो रहा कि वह सब सम्हाल पाएगी। जितने भी रिश्तेदार हैं शहर में, उनसे पहले ही बस औपचारिक-सा रिश्ता है। न वो किसी के घर जाते हैं न ही कोई उनके घर आता है। मन में एक ख़्याल यह भी आ रहा है कि अकेले ही सम्हालना ठीक है, क्यों किसी का एहसान लेना। 

इसी ऊहापोह में उसने बैठे-बैठे कुछ लोगों को कॉल किया, बताने के लिए। मामाजी, चाचाजी, मौसाजी जैसे रिश्तदारों ने आश्चर्य जताया, सहानुभूति दिखाई और ज़रूरत पड़े तो याद करना जैसे वाक्य बोल इतिश्री कर ली। पापाजी के चचेरे भाई को लगा पैसे न माँग ले, तो वो बिना कहे पैसों का दुखड़ा रोने लगे। 

अल्पना को न पैसों की ज़रूरत थी ना ही भीड़ की, उसे लग रहा था कि कोई होता यहाँ जो हिम्मत बढ़ाता उसकी, उसका हाथ थाम कर सहलाता, उसका अकेलापन बाँटता। मुश्किल की इस घड़ी में उसे कोई ऐसा नज़र नहीं आया जो साथ दे उसका। 

ग़लती किसकी है? वो सोच रही-हम ही तो समय, व्यस्तता के बहाना बना लोगों से दूरी बना लेते हैं। न किसी के घर जाना न किसी को बुलाना। सोशल मीडिया में भीड़ वाली लिस्ट में लोगों से जुड़े रहना और जीवन में तन्हा रहना; यही कड़वी सच्चाई है आज की। 

पद-प्रतिष्ठा के रुआब में अकड़े हुए, शहर-शहर भटकते हुए जीवन बिता देने वाले उसके पिता ने न कभी रिश्ते जोड़े न परिवार को जुड़ने दिया। माँ भी अपने पति की ऐसी आज्ञाकारी थीं कि जैसा पति ने कहा वो पत्थर की लकीर बन गया। न मायके में सम्बन्ध बरक़रार रहे उनके न ससुराल में नाता जोड़ पाई वो। और अल्पना वो सब को बस या तो नाम से जानती थी या पुरानी एल्बम में देखी तस्वीरों से। जब पापा के रिटायर होने का समय आया तो उन्हें अपना शहर याद आने लगा। आता भी क्यों नहीं! सारा जीवन अलग अलग शहरों में घूमने के बाद कहीं तो ठिकाना बनाना था। फ़िर पत्नी भी तो नहीं है साथ। भागदौड़ के बीच एक दिन दुनिया छोड़ कर चली गई। हमेशा ख़ामोश रहने वाली माँ ने न अपनी बीमारी बताई, न मन में भरा हुआ बारूद ख़ाली कर पाई। पति के अफ़सर वाले व्यवहार को झेलती, सहती एक रात वो जो सोई तो सुबह उठी ही नहीं। अल्पना भी पढ़ाई के बाद पुणे में नौकरी कर रही है। छुट्टियों में आती है तो पापा के ढेर काम इकट्ठा होते हैं। रिटायर होने के बाद भी उनका व्यवहार वैसा ही है। पिता कम अफ़सर ज़्यादा लगते हैं उसे। तीन चार दिन की छुट्टियों में केवल काम याद रहता है पापा को। ऐसा नहीं कि बैठ कर मन की बातें करें, उसके भविष्य की प्लानिंग पूछें। माँ को याद कर लें। बचपन में अल्पना सोचती थी पापा कभी और लोगों की तरह नॉर्मल क्यों नहीं रहते? उसकी सहेलियों के पिताओं की तरह क्यों उसे लाड़ नहीं करते। 

अल्पना को आज लग रहा था कितनी बड़ी ग़लती की उन्होंने। सभी इसी शहर में रहते हैं, बुआ, चाचा, उनका परिवार, लेकिन आज कौन यहाँ है उसके साथ? किसे फ़िक्र है इनकी? कौन उसके फ़ोन करने पर बोला कि तुम चिंता मत करो हम हैं ना। 

कॉफ़ी के मग से उठते धुएँ में उसे लिखा दिखाई पड़ रहा है कि ये उनकी ग़लती सुधारने का सही मौक़ा है। पर यह भी भय है कि सब ऐसा न समझें कि मतलब पड़ा, ज़रूरत हुई तो सबसे सम्बन्ध जोड़ रही है अल्पना। 

बड़ी हिम्मत कर उसने परिवार के वाट्सप ग्रुप में स्थिति बयान की और सबसे माफ़ी माँगते हुए निवेदन किया कि बीती बातों को भुलाकर पापाजी और उसे मौक़ा दें फिर से जुड़ने का। आज जब उसके ऊपर परेशानी आई है तो उसके साथ खड़े हों, उसका हाथ थाम कर उसे सम्हाल लें। अब सब की मर्ज़ी चाहे अवसर दें या ठुकरा दें। 

उसे उम्मीद है सुबह का भूला शाम को घर आना चाह रहा है तो कोई तो दरवाज़ा खोलेगा। 

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