बदलाव
कथा साहित्य | कहानी संजय मृदुल15 Aug 2023 (अंक: 235, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
राखी पर सब इकट्ठा हैं घर पर। दोनों भाई, ननद, बच्चे पूरा परिवार उत्सव की मस्ती में डूबा हुआ है, तभी अचानक दीदी ने कहा, “आज मैं मम्मी के लिए कुछ लेकर आई हूँ।” सभी हतप्रभ! ऐसा होता नहीं सामान्यतः, मम्मी ही हर त्योहार पर सबको कुछ न कुछ देती हैं अब तक। फिर आज अचानक दीदी को क्या हुआ? उल्टी गंगा कैसे बहेगी?
सब उन्हें घेर कर बैठ गए, बच्चों के चेहरे पे उत्सुकता झलकने लगी, दोनों भाई दम साधे नज़र गड़ाए, और हम दोनों बहुएँ सकते में कि जाने क्या होगा पैकेट में?
दीदी ने कहा, “मम्मी ज़रा अंदर चलिए, और आप सब इंतज़ार कीजिये।” हम और शॉक्ड! ये क्या है जाने दीदी क्या करने वाली हैं? ये अच्छा है कि तीनों भाई बहनों में ग़ज़ब सामंजस्य है। हम बहुएँ भी दीदी के साथ मित्रवत रहती हैं। कभी लगा नहीं कि वो ननद हैं। हमेशा दोस्त बहन या सलाहकार की भूमिका में रहती हैं वो। फिर भी थोड़ा-सा डर तो लग रहा था।
दरवाज़ा खुला और दीदी के पीछे मम्मी ने क़दम रखे कमरे में।
बच्चे सब आश्चर्य से चीख उठे, हम सब हँसे या कैसे रिएक्ट करें समझ नहीं आ रहा था। बस पापाजी शांत बैठे थे पर उनके चेहरे पर तनाव दिखाई दे रहा था।
मम्मी सलवार सूट पहनकर बाहर आई थीं। पिछले सत्रह सालों में हमने साड़ी में ही देखा था उन्हें। फिर आज ये अचानक परिवर्तन कैसे?
बच्चे छेड़ रहे थे उन्हें। “हाय दादी कितनी सुंदर लग रही हो। कितनी छोटी लग रही हो। ऐसे ही रहा करो न।”
दीदी ने घोषणा की, “आज से मम्मी भी सूट पहनेंगी।”
पापाजी कितने भी ग़ुस्से वाले ठहरे; दीदी की बात नहीं काटते कभी, सो चुप लगाए बैठे रहे।
मम्मी को कुछ समय से उम्र के हिसाब से तकलीफ़ रहने लगी थी, साड़ी पहनने में थोड़ी मुश्किल होती। कभी मैं कभी छोटी मदद करते तो तैयार हो पातीं। डॉक्टर ने बोला सूट पहनें पर पापाजी को कौन मनाए?
मगर इसके पीछे भी एक कहानी थी। छोटी शादी से पहले हर तरह की ड्रेस पहनती थी, यहाँ आकर वो भी साड़ी में बँध गयी। दीदी को जब भी ऐसे देखती बोलती, “काश हम भी ऐसे पहन पाते दीदी। अब तो ज़िन्दगी साड़ी के प्लीट्स में सिमट कर रह गयी है।”
साड़ी के फ़ायदे भी हैं तो नुक़्सान भी। मगर कामकाजी महिला को सूट सुविधाजनक लगता है। आजकल के समय में वैसे भी पहनावे में बहुत बदलाव आ गया है। आजकल की बहुयें तो मॉडलों जैसे कपड़े पहनती हैं। समय के साथ होने वाला परिवर्तन है ये तो। मगर हम साड़ी से बाहर नहीं आ पाए कभी। ऊपर से सर पर पल्ला ख़ासकर जब पापाजी घर पर हों। आजकल की सिल्की साड़ियाँ और पल्लू!। उफ़्फ़फ़! आसान नहीं होता काम करते-करते सम्हलना।
मम्मी जी के चेहरे पर अलग-सी ख़ुशी दिखाई दे रही थी। शायद उनके बहाने उनकी बहुओं के लिए एक दरवाज़ा खुल जाए ये सोचकर। राखी आज कुछ अलग-सी लग रही थी। पर्व के बहाने एक बदलाव की बयार चल पड़ी थी। मेरी बिटिया ने मम्मी जी के जूड़े को खोला और सुंदर-सी चोटी डाल दी। सब मम्मी जी के पीछे पड़ गए थे।
ये बोले, “एक सुंदर वाली फोटो लो भाई मम्मी की। और फ़ैमिली ग्रुप में पोस्ट करो। सब देखें माताराम की उम्र वापस लौट रही है।” फिर क्या था फोटो लेने की होड़ मच गई।
मैंने देखा पापाजी की नज़र मम्मी जी से मिली और वे हौले से मुस्कुराते हुए उठ कर बरामदे की ओर चल पड़े।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कहानी
लघुकथा
कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं