बदलाव
कथा साहित्य | कहानी संजय मृदुल15 Oct 2022 (अंक: 215, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
मैं अरुण के सीने से लगी ज़ोर-ज़ोर से रो रही थी, उनका हाथ मेरे सर पर था और वो मुझे चुप कराने की कोशिश कर रहे थे।
आज मैंने जीवन में रिश्तों की, सम्बन्धों की, लोगों की क़द्र समझी।
मैं रोते हुए बार बार उनसे माफ़ी माँग रही थी। आज लग रहा था उन सभी से माफ़ी माँगूँ जिनके दिल को कभी-न-कभी दुखाया था मैंने। जिनके साथ बुरा व्यवहार किया था।
मैं पूरे परिवार में नकचढ़ी के नाम से जानी जाती थी। न किसी से बात करना न ही हमउम्र बच्चों से घुलना-मिलना। परिवार रिश्तेदार क्या होते हैं ये कभी जाना नहीं। कुछ मेरी सुंदरता का घमंड था तो कुछ मम्मी की शिक्षा का।
हमारा परिवार एक ही शहर में रहता था मगर अलग-अलग। दादी, चाचा, ताऊजी, सब थे मगर हमारा आना जाना नहीं था कहीं। किसी घर मे कुछ कार्यक्रम होता तो पापा अकेले ही जाते। मैंने कभी न किसी का सुख देखा न ही दुख। मम्मी को कोई पसन्द ही नहीं आता था। कोई न कोई बहाना बना देती हर बार। एक समय के बाद सबने बोलना ही छोड़ दिया। पापाजी ने भी परिस्थिति से समझौता कर लिया। हर बार मम्मी की जली-कटी सुनने से बेहतर यही लगा होगा उन्हें।
मैं भी इसी रंग में ढलने लगी क्योंकि जो देखती रही बचपन से, वही सीखा। कोई मेहमान आ जाये घर पर तो कोई मतलब नहीं मुझे। परिवार के किसी भाई-बहन से कोई लगाव ही नहीं बन पाया। कभी भूले-भटके एक जगह इकट्ठा होते तो मम्मी मुझे न छोड़तीं। जब बड़े हुए तो किसी से वास्ता ही नहीं रहा। मगर कहते हैं न किसी के बिना जीवन रुकता नहीं। तो हम भी अकेले जीने के अभ्यस्त होते गए। परिवार, रिश्तेदार, दोस्ती जैसे शब्दों से परिचित लेकिन इनकी सौंधी महक से अनजान।
एक दिन मेरी शादी हो गयी, सबकी होती है जैसे। मम्मी चाहती थी एकल परिवार जहाँ ज़्यादा झंझट न हो। मगर तक़दीर के आगे चली किसकी है। तीन भाइयों, दो बहनों से भरा-पूरा परिवार मिला, जो हमारे शहर से थोड़ी दूर पर दूसरे शहर में रहता था। शादी के बाद कुछ दिन तो मुझे लगता रहा मैं चिड़ियाघर में आ गयी हूँ। ननदें कुछ दिन बाद ससुराल चली गयीं। रह गए दोनों जेठ, उनका परिवार और सास-ससुर।
तब भी इतने लोग भी मैंने एक साथ रहते कहीं नहीं देखे थे। बड़ा अजीब-सा लगता। दिन भर सारे जेंट्स दुकान चले जाते बच्चे स्कूल तो सास जेठानियाँ बैठ कर बातें करतीं या कुछ काम करतीं। तब मैं अपने कमरे में घुसी रहती। मेरी तो आदत ही नहीं थी ऐसी, किसी से बात करने की, गप्पें मारने की। बड़ी, पापड़, अचार कैसे बनता है, देखा ही नहीं था। ले-देकर खाना बना लेती थी यही शुक्र था। घर के काम कभी मन से किये ही नहीं थे। और बाहर के काम करने नहीं दिए कभी। तो भोदूँ मैं, इन सबके बीच बड़ा अटपटा महसूस करती। इसलिए सबसे अच्छा कमरे में पड़े रहो। कुछ महीनों में सबको समझ आ गया मैं कैसी हूँ। सास ने कोशिश की समझाने की, फिर उन्हें भी लगा पत्थर पर रस्सी घिसने से निशान आने में समय बहुत लगेगा इससे अच्छा है समय पर छोड़ दिया जाए सब। मेरा मन होता तो काम करती, नहीं तो अपने राजभवन में। कभी टीवी, कभी मोबाइल और इनके अलावा मम्मी से घण्टों बातें। मेरे आने के बाद उनके पास भी कोई नहीं था। अकेलापन महसूस करती थी वो भी। मेरे सुबह उठने से लेकर सोने तक पूरी दिनचर्या उनसे शेयर करती। और बदले में मिलती सलाह। ज़्यादा काम न किया कर। बच्चो को ज़्यादा मुँह न लगाया कर। अरुण का बस ध्यान रखा कर। बाक़ी के पीछे सर खपाने की ज़रूरत नहीं। ऐसा कोशिश कर कि अरुण अलग घर लेकर रहने लगे। ऐसी ही ज्ञानवर्धक शिक्षा।
ऐसा नहीं कि अरुण प्यार नहीं करते मुझे। सब फ़रमाइशें पूरी करते, ध्यान रखते, कोशिश करते कि सब से पटरी बैठ जाये मेरी। मगर बचपन से देखते सुनते मैं वो दुम हो गयी थी जो कभी सीधी नहीं हो सकती।
दो साल हो शादी को हमारी। सब ने जैसी हूँ वैसी एडजेस्ट कर लिया मेरे साथ। परिवार में एका बहुत है मेरे लाख कोशिश के बाद भी अरुण बदले नहीं। ये हुआ कि मुझ से ज़्यादा बातें नहीं करते। मैं जब चाहे मायके चली जाती तो भी कुछ नहीं कहते।
कुछ पति होते हैं ऐसे जो हर हाल में परिवार को ख़ुश रखने के लिए त्याग करने को तैयार रहते हैं; अरुण उनमें से हैं। मैं अपने व्यवहार आदतों के कारण सबसे दूर होती चली गयी, मगर मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। क्योंकि जैसी शिक्षा मिली वैसी ही आदतें बन गयी थीं।
एक दिन सुबह नींद खुली तो देखा सन्नाटा पसरा हुआ था घर में। सभी बड़े ग़ायब। और बच्चे घर पर।
पता चला आधी रात बाबूजी की तबियत बिगड़ गयी तो एडमिट करना पड़ा। अरुण को कॉल किया तो बोले अटैक आया है बाबूजी को, एडमिट किये हैं। तुम्हें उठाया था पर तुम उठी नहीं। तुम घर के काम देख लो बने तो, यहाँ सब हैं।
मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। जैसे बन पड़ा नाश्ता बनाया बच्चों को खिलाया फिर मम्मी को कॉल कर के बताया। उन्होंने कहा तू घर पर रह, सब तो हैं वहाँ, क्या करेगी जाकर।
सात दिन रहे बाबूजी, मैं अरुण के साथ चली जाती, कुछ देर में अजीब-सा लगने लगता वहाँ। सब भाई मिलकर डयूटी बाँध लिए थे, दोनों जेठानी भी आती-जाती रहतीं। बस मैं घर पर रहती जितना मन होता काम कर देती। कोई कुछ कहता नहीं था मुझे मगर सबके चेहरे बयान कर देते थे। अरुण भी चुपचाप सेवा में लगे रहे। रात में वहीं रुकते सुबह आते फिर तैयार होकर दुकान चले जाते। जितना कम बोलना पड़े मुझसे यही कोशिश करते। मुझे फ़र्क़ कहाँ पड़ता था किसी बात से। रिश्तों की क़द्र करना कहाँ सीखा था मैंने। न मुझे किसी की परवाह थी।
समय बीत जाता है, बातें रह जाती हैं। मन मे जो घाव लगते हैं वो भर जाते हैं मगर निशान रह जाते हैं। एक छत के नीचे मैं सबसे अजनबी होती गयी। न कोई मुझे कोई बात बताता न ही किसी कार्यक्रम में जाने के लिए ज़ोर डाला जाता। बस अरुण बता देते। मर्ज़ी हो तो चलो नहीं तो घर पर रहो।
मैं भी आँख वाली अंधी। मम्मी और मैं मेरी दुनिया इससे आगे आज तक नहीं बढ़ पाई।
आज लग रहा है सबने कितना कोसा होगा मुझको। कितने दुख दिए हैं मैंने सबको। आज दस दिन हो गए पापाजी को अस्पताल में। उनके लंग्स में पानी भर गया था। स्थिति गम्भीर थी। काफ़ी समय से तबीयत ढीली थी मगर बताया नहीं उन्होंने। न किसी को फ़िक्र थी। मम्मी बस दवाई दे देती समय पर। बाक़ी वो जाने।
मम्मी का कॉल आया कि पापाजी को अस्पताल में एडमिट किया है, जल्दी आ जा। मैं अरुण से बताया तो उन्होंने मम्मी से बात की और बोला मैं भी चलता हूँ। वो दिन और आज का दिन है दस दिन हो गए अरुण घर नहीं गए। पापाजी के साथ हैं लगातार। इस बीच रोज़ ही ससुराल से कोई न कोई आ जाता। ताऊजी, चाचा, बुआ कोई नहीं आये। बस फोन कर के हालचाल ले लेते। मामा एक दिन आये और नसीहतें देकर चले गए।
मैं भी ज़्यादातर समय साथ रहती। ये बुरा समय शायद मुझे सिखाने को आया है ऐसा महसूस हुआ मुझे।
आज पापाजी की तबियत काफ़ी अच्छी है। दुनिया भर की नसीहतें देकर डॉक्टर ने आज छुट्टी दे दी है। अरुण मुझसे कहने लगे अभी तुम यहीं रुको। यहाँ ज़रूरत है तुम्हारी। मैं रोज़ रात आ जाया करूँगा। पापाजी अच्छे हो जाएँ फिर ले चलूँगा तुम्हेंं। बहुत ध्यान रखना पड़ेगा इनका। बहुत कमज़ोर हो गए हैं तुम रहोगी तो सब सम्हाल लोगी। कितने विश्वास से कहा उन्होंने। मैं फफक कर रो पड़ी। अपना सब किया याद आने लगा। सब भूलकर कैसे मेरे परिवार ने मेरा साथ दिया परेशानी में। मैं अरुण से बोली। आज तुम और रुक सकते हो क्या? कल मैं एक बार घर जाना चाहती हूँ। वो बोले, “क्यों?”
मैंने कहा, “बस कुछ ज़रूरी काम है।”
“ठीक है,” उन्होंने बोला।
मैं कल सब से माफ़ी माँगूँंगी। उम्मीद है छोटी समझकर, नादान समझकर माफ़ कर देंगे मुझे। मैं उनकी ही छोटी बहू तो हूँ। अपना घर, अपना परिवार क्या होता है ये जान लिया है मैंने।
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