सनकी
कथा साहित्य | कहानी महेश कुमार केशरी1 Sep 2022 (अंक: 212, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
नहीं इस बार कभी ज़ोर से दिल नहीं धड़का था। ना ही कभी कोई ऐसी ख़ुशी महसूस हुई थी। जैसी बीस साल पहले उसको देखकर होती थी। कभी-कभी सोचता हूँ कि वो शायद एक लड़कपन के दिनों की एक ग़लती थी। जब उसे दिल दे बैठा था।
तारा कब की जा चुकी थी। तारा से इस तरह उसने कभी बेरुख़ी से बात नहीं की थी, जितनी वो आज उससे बेरुख़ी कर गया। और, आश्चर्य ये था कि अंगद को किसी तरह का कोई मलाल भी नहीं था। बल्कि, वो तो ख़ुश था। अपने उस व्यहवार के लिये कि तारा को सरेआम झाड़ दिया था। दसियों ग्राहकों के सामने। उस समय उसके दिमाग़ के तने स्नायुओं को कितनी राहत मिली थी।
जब उसने तारा से साफ़-साफ़ कह दिया था, “नहीं मैम, मैं इस दूकान का मालिक ज़रूर हूँ। लेकिन, मैं भी नियमों से बँधा हूँ। माफ़ कीजिये, मैं आपकी कोई मदद इस मामले में नहीं कर सकता। आपको मैं, एक्सचेंज करने की सुविधा बिल्कुल भी नहीं दे सकता। और, हाँ मैं ऐसा आपके साथ ही नहीं कर रहा हूँ। मैं, अपने सभी ग्राहकों के साथ एक जैसा ही व्यहवार करता हूँ। नो मतलब, नो।”
उसे ख़ुद भी पता है कि वो इसी शहर की फ़ोर्टीन-बी काॅलोनी के सी-ब्लाॅक में रहती है। यहाँ तक कि उसने उसका घर भी देखा है। लेकिन फिर भी वो तारा को पैसे जमा करने के बावजूद भी सामान घर ले जाकर अपनी माँ या भाभी को दिखाने की इजाज़त नहीं देता।
तारा की छोटी बहन कंचन ने अनुरोध किया, “प्लीज़, सर मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी माँ और भाभी को ये साड़ी ज़रूर पसंद आयेगी। प्लीज़, सर, सिर्फ़ एक घंटे के लिये ले जाने दो ना, ये साड़ी। प्लीज़ मैं तुरंत लौटा दूँगी।”
“रहने, दो ज़िद क्यों कर रही है? जब नहीं दे रहें हैं तो चल, कहीं दूसरी जगह देखते हैं। यही एक दूकान थोड़े है, पूरे मथुरा में।”
यही ऐंठन तारा में आज से बीस साल पहले भी थी। आज भी उसकी ऐंठन कम नहीं हुई है। निहायत बद-दिमाग़ और कम अक़्ल की लड़की है, तारा। अंगद को कभी-कभी अफ़सोस होता है कि उसको प्यार भी हुआ था, तो इस कम अक़्ल की बेवक़ूफ़ अक्खड़ लड़की से। वो भी तो गधा ही है। उसकी अक़्ल पर ही पर्दा पड़ गया था। जो तारा से प्यार कर बैठा था।
इन बीस सालों में क्या-क्या बदला है? तारा कितनी ख़ूबसूरत थी, बीस साल पहले। अब तो गोरा चेहरा काला पड़ गया है। चेहरे पर पहली वाली मुस्कुराहट नहीं रही। तारा शक्ल से तो ख़ूबसूरत थी। लेकिन, धोखेबाज़ लड़की है। सामान लेने आती थी तो कैसे मुस्कुराती थी। मैं तारीख़ों को कैलेंडर में मार्क करके रखता था। उसकी पसंद की सोनपापड़ी, पेठा, अमावट सारी चीज़ें उसके आते ही पैक कर देता था। लेकिन, उसकी मुस्कुराहट धोखा दे गई थी।
मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि मैं किससे प्रेम करता था? उससे या उसके चेहरे से। अगर उसको मुझसे प्रेम नहीं था। तो वो मुझे देखकर मुस्कुराती क्यों थी?
नहीं, शायद मैं ही ग़लती पर था। सामान्य शिष्टाचारवश भी तो लोग मुस्कुराते हैं।
ये भी तो हो सकता है, कि उसकी तरफ़ से ना हो। चलो कोई बात नहीं। ना हो तो ना ही सही। लेकिन कम-से-कम संकेत तो देना ही चाहिये था।
लेकिन, लड़की है बेचारी कैसे संकेत देती? साथ में उसकी माँ भी तो होती थी।
इधर चेहरा कैसा काला पड़ गया है, तारा का। ठीक ही हुआ। भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं। ऊपर वाले की लाठी में आवाज़ नहीं होती।
मेरा लेटर उसने अपने बाप को दिखाया था। मेरा भगवान गवाह है कि मैंने भगवान से कभी कम श्रद्धा नहीं रखी तारा पर। मेरा ख़ुदा तो तारा ही थी। मैंने तो शादी तक के बारे में सोच लिया था। अपने बच्चों के नाम तक रख लिये थे। लेकिन, एक दिन उसने कहा कि नहीं धरती और आकाश कभी नहीं मिल सकते।
मैंने उसे भरोसा दिलाया था, कि देखो उधर समुंद्र की तरफ़ जहाँ से सूरज निकल रहा है। वहाँ, क्षितिज है। जहाँ धरती और आकाश आपस में मिलते हैं।
उस वक़्त तारा हँसी थी, “तुम जागती आँखों से सपने मत देखो। क्षितिज कहीं नहीं होता। सब आँखों का भ्रम है। जैसे रेगिस्तान में मृग-मरीचिका के कारण होता है। पानी कहीं नहीं होता। केवल पानी के होने का भ्रम होता है। प्रेम भी कुछ-कुछ वैसा ही होता है।”
फिर, अचानक मुझे याद आया कि उसने अपने बाप के सामने क्या कहा था, “जो, चीज़ मुझे नहीं लेनी होती थी। उसे ये जबरदस्ती दे देते थे।”
“मैं तुमसे आख़िरी बार पूछ रही हूँ कि मैं इसे ख़रीद कर ले जा रही हूँ। अगर पसंद नहीं आयेगी तो वापस कर लोगे ना?” तारा की आवाज़ में इस बार भी वही अकड़ थी। जो आज से बीस साल पहले हुआ करती थी।
पता नहीं अंगद के दिमाग़ के तंतु तनते चले गये। दाँत भींचते चले गये। दिमाग़ में ख़ून का रफ़्तार दूने वेग से बहने लगा। दिल की धड़कनें फिर बढ़ गईं। पाँव लड़खड़ाने लगे।
उस दिन दूकान में भीड़ भी बहुत ज़्यादा थी। दसियों पुरुष और महिला ग्राहकों को निबटा रहा था वो। तभी तारा ने वो सवाल उससे दोहराकर पूछा था।
उसकी आवाज़ अचानक, ज़ोर से चीखी, “मैं मोर्चे से एक बार पीछे हट चुका हूँ। बहुत चोट खाई थी, उस समय मैंने। अब इतना ताब नहीं रहा है कि बार-बार मोर्चे पर पीछे हटूँ।”
“मैं सामान की बात कर रही हूँ।”
“उस समय भी मैं कोई सामान नहीं था। आज भी नहीं हूँ। बहुत खेल लिया था उस समय तुमने मेरे दिल से। अब और नहीं। तुम लड़कियों की मर्दों के दिलों से खेलने की ये रवायत अब हमेशा के लिये ख़त्म होनी चाहिये। तुमने मुझे बरबाद कर दिया।”
“मैंने किसी के दिल से नहीं खेला है।”
“खेला है, मेरे दिल से।”
“इसका, कोई सबूत है, तुम्हारे पास।”
“पूछो, अपने दिल पर हाथ रखकर, कि तुमने कभी मुझसे प्यार नहीं किया?”
“लो, दिल पर हाथ रखकर क़सम खाती हूँ, कि कभी तुमसे प्यार नहीं किया।”
“मैं, तुमसे प्रेम करता था। मुझे सालों नींद नहीं आई। किताब पढ़ता था, तो मुझे कुछ समझ में नहीं आता था। किताबों की इबारत में तुम्हारा ही चेहरा दिखाई पड़ता था।
“तुम्हारा, चेहरा पहले की तरह गोरा नहीं रहा। ये काला क्यों पड़ता जा रहा है? तुम इतनी बदसूरत तो कभी नहीं थी।”
“दवाई, रिएक्शन कर गई थी।”
“झूठ, तुम्हें ईश्वर ने सज़ा दी है। झूठ बोलने की। और हमेशा ऐसी सज़ा तुम लोगों को ईश्वर देगा। अगर फिर मेरे जैसे बेकसों को धोखा दिया तो और बद्दुआएँ लगेंगी।”
“ओह! क्या सच? मैं अपनी ग़लती मानती हूँ।
“शायद, तुम ठीक कह रहे हो। तभी मेरा चेहरा इतना ख़राब होता जा रहा है। ईश्वर ने तुम्हारी आहों की सज़ा दी है।
“क्या, तुमने कभी मुझे बद्दुआएँ दी थीं?”
“धत्, भला, प्रेम करने वाला कभी अपनी प्रेमिका को बद्दुआएँ दे सकता है? बिल्कुल नहीं!”
“सच!”
“सच! तुम्हारी क़सम!”
“तुम झूठ बोल रहे हो।”
“मैंने ईश्वर से भी ज़्यादा तुमसे प्रेम किया है, तारा। प्रेम में आदमी कभी झूठ नहीं बोलता।”
“मैं तुमसे कितनी बार कह चुका हूंँ। मैं ये एक्सचेंज बिल्कुल भी नहीं करूँगा। तुम्हारे लिये कोई अलग से नियम नहीं बनेगा। समझीं तुम। अब अपनी ये वाहियात शक्ल मुझे कभी मत दिखाना। दफ़ा हो जाओ यहाँ से। कभी मत आना मेरी दूकान पे। जाओ नहीं तो धक्के मार कर निकाल दूँगा। पाजी कहीं की। चल भाग यहाँ से।”
तारा और उसकी बहन डरकर दूकान से बाहर निकल गईं।
बाहर आकर कंचन, तारा से बोली, “दीदी, आपको जानता था, वो?”
तारा झेंपते हुए बोली, “पता नहीं कोई सनकी था।”
उस रात, तारा को सारी रात नींद नहीं आई थी।
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