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बदरंग ज़िन्दगी

दामोदर को एहसास हुआ कि उसे फिर, से पेशाब लग गया है। पता नहीं उसका गुर्दा ख़राब हो गया है, या शायद कोई और बात है। अब, बिना डॉक्टर को दिखाये उसे कैसे पता चलेगा कि उसको बार-बार पेशाब क्यों आता है? ऐसा नहीं है कि उसने डॉक्टर को नहीं दिखाया। उसने कई-कई डॉक्टरों को दिखाया, लेकिन, समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। उसे लगातार पेशाब आना बंद ही नहीं होता है। वो आख़िर करे भी तो क्या करे? अब उसका डॉक्टरों पर से जैसे विश्वास ही उठ गया है। उसे लगता है कि उसके मर्ज़ की दवा शायद अब किसी भी डॉक्टर के पास नहीं है। कभी-कभी उसे ऐसा भी लगता है कि वो एक ऐसे जंगल में पहुँच गया जहाँ से उसे बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं सूझ रहा है, और, वो उसी जंगल में आजीवन भटकता रहकर कहीं मर-खप जायेगा। उसे अपने जीवन में सब कुछ अच्छा लगता है, लेकिन, उसे अच्छा नहीं लगता कि उसे बार-बार पेशाब आये। ज़्यादा पेशाब आने से उसे बार-बार पेशाब करने काम को छोड़कर जाना पड़ता है। उसके मालिक, यानी कारखाने के मालिक, उसकी इस हरकत पर बड़ी बारीक़ नज़र रखे हुए रहते हैं, और वो तब मन-ही मन भीतर से कटकर रह जाता है। जब, मालिक उसे टेढ़ी नज़र से देखते हैं, और, मन ही मन गुर्राते हैं। और भला गुर्राये भी क्यों ना? उसे छह हज़ार रुपये महीने भी तो देते हैं, और वो इधर साल भर से काम भी तो ठीक से नहीं कर पा रहा है।

उसको कभी-कभी ख़ुद भी लगता है कि वो काम छोड़ दे, और अपने घर पर ही रहे। तब तक, जब तक की उसकी बार-बार पेशाब करने वाली बीमारी ख़त्म ना हो जाये, लेकिन अगर वो काम छोड़ देगा तो खायेगा क्या? बार-बार ये सवाल उसके दिमाग़ में कौंध जाता है। अमन की उम्र भी भला क्या है? मात्र उन्नीस साल! इतने कम उम्र में ही उसने पूरे घर की ज़िम्मेदारी सँभाल ली है। ऐसे उम्र में दूसरे बच्चे जब बाप के पैसे पर कहीं किसी कॉलेज में अय्याशी कर रहे होते हैं। उस समय अमन सारे घर को देखने लगा है। आख़िर क्या होता है आजकल छह हज़ार रुपये में? आज अगर अमन को मिलने वाले पंद्रह हज़ार रुपये उसको नहीं मिलते तो क्या वो घर चला पाता? नहीं बिल्कुल नहीं! और अमन हर महीने याद करके उसकी दवा ऑनलाइन ख़रीदकर भेज देता है। नहीं तो उसकी सैलरी में तो वो अपनी दवा तक नहीं ख़रीद पाता। आज एक दवा ख़रीदने जाओ तो, वो दो सौ रुपये का मिलता है, लेकिन अगले महीने जाओ तो कंपनी उसी दवा पर दस-बीस फ़ीसदी रेट बढ़ा देती है, और, आजकल डॉक्टर के केबिन के बाहर मरीज़ों से ज़्यादा उसे मेडिकल रि-पर्ज़ेंटेटिव लड़के ही दिखाई देते हैं। मरीज़ों को ठेलते-ठालते अंदर घुसने को बेताब दिख पड़ते हैं ये लड़के! जो, थोड़ी बहुत भी नैतिकता डॉक्टरों में बची थी। वो इन कमबख़्त दवा कंपनियों ने ख़त्म कर रखी है। रोज़ एक दवा कंपनी बाज़ार में उतर जाती है और, उसके ऊपर दबाव होता है, अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग का। जहाँ चूकते-चूकते आख़िरकार डॉक्टर भी हथियार डाल ही देते हैं। रोज़ एक नया चेहरा वैसे ही एक कृत्रिम मुस्कुराहट ओढ़े हुए उनके केबिन में दाख़िल हो जाता है, और ना चाहते हुए भी वो उनकी दवा मरीज़ों को लिख देते हैं। दवाओं पर मनमाना दाम कंपनी लगाती है और कंपनी के टार्गेट और मुनाफ़े के बीच फँस जाते हैं उसके जैसे लोग। 

उसको लगा वो कुछ देर और रुका तो उसका पेशाब पैंट में ही निकल जायेगा। लोग उसकी इस बीमारी पर बुरा सा मुँह बनाते हैं। ख़ास कर उसके सहकर्मी, और उसने अपनी बहुत देर से दबी हुई इच्छा आख़िरकार, दिनेश को बताई। दिनेश उसका साथी है। रोज़ काम करने बैरकपुर से रघुनाथपुर वो दिनेश की मोटर साइकिल से ही आता जाता है। उसके पास अपनी मोटरसाइकिल नहीं है। उसका घर, दिनेश के घर के बग़ल में ही है इसलिए वो उसकी मोटरसाइकिल से ही काम पर आता जाता है।

“दिनेश मैं आता हूँ, पेशाब करके,” इतना कहकर वो निपटने के लिए जाने लगा, लेकिन, तभी दिनेश की बात को सुनकर रुक गया। 

दिनेश ने कारखाने से छुट्टी होने के बाद अभी कारखाने का गेट बंद ही किया था कि दामोदर की इस अप्रत्याशित बात को सुनकर झुँझला पड़ा, “अगर, तुम्हें पेशाब करने जाना ही था, तो कारखाना बंद होने से पहले ही चले जाते, और हाँ, अभी तुम थोड़ी देर पहले भी तो पेशाब करने गये थे। पता नहीं तुमको कितना बार पेशाब लगता है? एक हम लोग हैं। कारखाना में घुसने के बाद बहुत मुश्किल से दो या ज़्यादा से ज़्यादा तीन बार जाते होंगे, लेकिन, तुमको तो दिन भर में पचास बार पेशाब लगता है। पता नहीं क्या हो गया है तुम्हें? किसी अच्छे डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाते?” 

दामोदर के चेहरे पर ज़माने भर की कातरता उभर आई। उसके सूखे हुए बदरंग चेहरे पर नज़र पड़ते ही दिनेश का दिल भी डूबने लगा, और वो उसकी परेशानी को समझते हुए बोला, “ठीक है जाओ, लेकिन, ज़रा जल्दी आना। आज मुझे मेरे बेटे को पार्क लेकर जाना है। घुमाने के लिए। वो पिछले कई हफ़्तों से कह रहा है। पापा, आप कभी मुझे पार्क लेकर नहीं जाते। आज अगर मैं जल्दी नहीं गया तो वो फिर सो जायेगा और कल फिर, से वही तमाशा करेगा घूमने जाने के लिए। अखिर, इन मालिक लोगों के लिए सुबह नौ बजे से रात को नौ बजे तक काम करते-करते अपने बाल-बच्चों को कहीं घुमाने का समय ही नहीं मिल पाता।” 

“हाँ आता हूँ।” कहकर दामोदर जल्दी से पान मसाला की एक पुड़िया फाड़कर अपने मुँह में डालता हुआ, पेशाब करने चला गया।

दामोदर, सेठ घनश्याम दास के यहाँ पिछले बीस सालों से काम करता आ रहा। दिनेश अभी नया-नया है। दोनों गाड़ी पर बैठे और, अपने गंतव्य की ओर चल पड़े।

बात के छोर को दिनेश ने पकड़ा, “तुम्हे ये बीमारी कब से हुई है, और तुम इसका इलाज क्यों नहीं करवाते दामोदर?” 

दामोदर बोला, “अरे भ‍इया इलाज की मत पूछो। पिछले लाॅकडाउन में, मैं अपनी सोसाइटी की गेट पर खड़ा-खड़ा ही बेहोश होकर गिर पड़ा था। वो, तो बग़ल के एक दुकानदार ने देख लिया, और सोसाइटी के गार्ड की मदद से मुझे मेरठ भिजवाया। सात दिनों तक “जैक” हास्पिटल में रहा। एक दिन का पंद्रह हज़ार रुपये चार्ज था वहाँ का। केवल सात दिनों में ही एक लाख रुपये से ज़्यादा उड़ गये। फिर, मेरे लड़के ने नर्सरी हास्पिटल में मुझे भर्ती कराया। तब जाकर अभी मेरी हालत में कुछ सुधार आया है। अगर वो, दुकानदार और गार्ड ना होते तो आज मैं तुम्हारे सामने ज़िन्दा ना होता।” 

“और, सारा ख़र्चा कहाँ से आया? सेठजी ने कुछ मदद की या नहीं?” दिनेश बाइक चलता हुआ बोला। 

“अरे, मुझे कहाँ होश था। लड़का बता रहा था उसने मालिक को फोन करके पैसे मांँगे थे, लेकिन मालिक की सूई दो हज़ार पर अटकी हुई थी। बड़ी हील-हुज्जत के बाद उन्होंने पांँच हज़ार रुपये दिए।” 

“बाक़ी के पैसों का इंतज़ाम कैसे हुआ?” 

“कुछ अग़ल-बग़ल से क़र्ज़ लिया, और बाक़ी मेरे ससुर जी ने लगभग चार लाख रुपये देकर मेरी मदद की। तब जाकर मेरी जान बची।” 

मोटर साइकिल एक मेडिकल स्टोर के बग़ल से गुज़री। दामोदर ने दिनेश को गाड़ी रोकने के लिए कहा। 

और, वो लपकता हुआ मेडिकल स्टोर की तरफ़ बढ़ गया। उसकी दवा ख़त्म हो गयी थी। उसने दुकानदार को पर्ची दिखाई दुकानदार ने पर्ची को बड़े ग़ौर से देखा और दवाई निकालकर उसने काउंटर पर रख दिया और दामोदर से बोला, “इस बार भी कंपनी ने दवा का दाम बढ़ा दिया है। उसनें एम.आर.पी. पर नज़र डालते हुए कहा, “पिछले बार ये दो सौ पचास रुपये की आती थी, अब दो सौ सत्तर रुपये लगेंगे। क्या करूँ दे दूँ?” 

दामोदर ने जेब में हाथ डाला, और पैसे गिने एक-दो उसके पास दो सौ रुपये थे। उसी में उसे रास्ते में घर के लिए एक लीटर दूध भी लेना था। पैसा नहीं बचेगा उसने दुकानदार से कहा, “फ़िलहाल मुझे दो दिन की दो गोली दे दो। बाक़ी जब तनख़्वाह मिलेगी तब आकर ले जाऊँगा।” 

दवा लेकर ख़ुदरा पैसा उसने जेब के हवाले किया और वापस आकर बाइक पर बैठ गया। रास्ते में उसने एक लीटर दूध भी लिया। 

घर, पहुँचकर उसने हाथ मुँह धोया और पलंग पर लेट गया। तब तक उसकी पत्नी रुची चाय बनाकर ले आयी। एक प्याली उसने दामोदर को दी और दूसरी प्याली ख़ुद लेकर चाय पीने लगी। 

चाय पीते-पीते वो, बोली, “आज, घर का मकान मालिक, आया था और घर का किराया भी माँग रहा था। कह रहा था कि दो महीने का किराया तो पूरा हो ही गया है, और, अब तीसरा महीना भी लगने वाला है। आप लोग जल्दी से जल्दी किराया दीजिये नहीं तो घर ख़ाली कर दीजिए।” 

“ये हरीश भी अजीब आदमी है। वो जानता है, कि अभी कोविड का समय है, और ऐसी नाज़ुक स्थिति है। यहाँ हम लोग दाने-दाने को तरस रहे हैं। एक टाइम माड़-भात तो एक टाइम पानी या शर्बत पीकर ही काम चला रहे हैं। एक तो खाने-पीने वाले राशन की परेशानी। उस पर से हर महीने का किराया। आख़िर कहाँ से लाकर दे आदमी इस गाढ़े समय में किराया? इन ढ़ाई महीनों में वो पहले ही अपने जान-पहचान के सभी लोगों से क़र्ज़ ले चुका है। अभी उसने पहले से लिए क़र्ज़ को ही नहीं चुकाया है, तो ये कमरे का किराया कहाँ से लाकर देगा? उसको भी सोचना चाहिए। दो-ढ़ाई महीने से दुकान बंद है। जब मालिक से पैसा मिलेगा तब उसको किराया भी मिल ही जायेगा। कौन से हम भागे जा रहे हैं?” 

दामोदर को लगा जैसे उसके सीने पर किसी ने बहुत भारी पत्थर रख दिया हो। जिससे उसका साँस फूलने लगा हो, और अब तब में उसका दम घुट जायेगा, और वो वहीं पलंग पर ख़त्म हो जायेगा। वो उठकर पलंग पर बैठ गया। 

“आज माँ का फोन भी आया था। कह रही थीं कि एक बार में ना सही लेकिन, किश्तों में ही चार लाख रुपये थोड़ा-थोड़ा करके लौटा दें। मेरी छोटी बहन निम्मो की शादी तय हो गयी है। अगले साल कोई अच्छा सा लगन देखकर पिताजी निम्मो की शादी कर देना चाहते हैं। तुमसे सीधे-सीधे कहते नहीं बना तो, उन्होंने माँ से फोन करके कहलवाया है,” रुची ने डरते-डरते धीरे से कहा। 

“ठीक है, उनका भी क़र्ज़, हम लोग चुका देंगे, लेकिन, थोड़ा समय चाहिए,” दामोदर छत को घूरते हुए बोला।

रात काफ़ी गहरा चुकी थी। रुची कब की सो गई थी। लेकिन, दामोदर को नींद नहीं आ रही थी। रह-रह कर वो बदरंग हो चुकी दीवार और छत को घूरता जा रहा था। उसे कभी-कभी ये भी लगता है कि उस दीवार और छत की तरह ही उसकी ज़िन्दगी भी बदरंग हो गई है। एक दम बेकार पपड़ी छोड़ती, और सीलन से भरी हुई! क्या पाया आज उसने पचास-पचपन साल की उम्र में?! कुछ भी तो नहीं! ताउम्र वो खटता रहा लेकिन, उसके हाथ में क्या लगा? सिवाये शून्य के! एक नपी-तौली ज़िन्दगी जो, ख़ुशी से ज़्यादा उसे दुःख ही देती रही। ज़्यादातर वक़्त अभाव में ही बीता। अचानक उसे लगा कि उसे फिर, से पेशाब लग गया है, वो उठकर फ़ारिग़ होने चला गया। आकर वापस लेटा तो रूची की नींद खुल गई। उबासी लेती हुई रुची ने पूछा, “क्या हुआ नींद नहीं आ रही है क्या?” 

“नहीं। लगता है पलंग में खटमल हो गये हैं, और मुझे काट रहे हैं,” दामोदर बिछौना ठीक करता हुआ बोला।

 रुची ने ‘अच्छा’ कहा और उबासी लेती हुई फिर से सो गई।

उसके बग़ल वाला कमरा उसकी बेटी प्रीती का है। पापा के आने की आहट पाकर उसने जल्दी से अपने कमरे की बत्ती बंद कर ली। लेकिन, दामोदर के दिमाग़ में एक नई दुश्चिंता ने घर करना शुरू कर दिया। आख़िर इस साल प्रीति का पच्चीसवांँ लगने वाला है। आख़िर कबतक जवान लड़की को कोई घर में रखेगा। कल को कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गई तो! तमाम दुश्चिंताओं के बीच दामोदर रात भर करवटें बदलता रहा। लेकिन, उसे नींद नहीं आई।

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