घर से लौटना
काव्य साहित्य | कविता महेश कुमार केशरी1 Nov 2025 (अंक: 287, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
मैं मज़दूर हूँ, काम पर से घर
नहीं लौटता
मेरा घर बहुत दूर है
गाँव जब-जब जाता हूँ तो
लोग पूछते हैं भाई बड़े दिनों बाद लौटे
कैसे हो?
पीठ पीछे लोग हँसते हैं
ताना भी मारते हैं
मेहरिया के बारे में अंट-शंट बकते हैं
मैं नज़र अंदाज़ कर देता हूँ
उनकी बातों को
नहीं कह पाता उनके हँसने पर कुछ
लेकिन जब रात को सोचता हूँ
उनके हँसने की बात और
चुटीले बाण
तब वो हँसी मुझे बेचैन कर देती है!
उठकर जला लेता हूँ बीड़ी
भरता हूँ लंबे-लंबे कश
कई-कई बार पेशाब से हो आता हूँ
हथेली और पेशानी
पसीने से भीग जाते हैं
लेकिन विरोध नहीं कर पाता
सोचता हूँ मज़दूर आदमी हूँ
जब बहुत पैसा कमा लूँगा
तब आकर रहूँगा अपने गाँव में
लोग पूछते हैं क़ुवैत और दुबई
के बारे में
उत्सुकता और कौतूहल से
नहीं बल्कि व्यंग्य से!
जतलाने के लिए
कि तुम मज़दूर हो!
सामने से नहीं कह पाते तो घुमाकर कहते हैं
कैसे बताऊँ उनको कि मैं
जब दुबई और क़ुवैत जाता हूँ तो लगता है
किसी दूसरे ग्रह पर आ गया हूँ
ऊँची-ऊँची इमारतों पर चढ़कर
खिड़कियों पर ग्लास लगाता हूँ
ऊँची-ऊँची इमारतों से जब देखता हूँ नीचे
तो
आँखों को बहुत गड़ाकर देखता हूँ
ताकि दिख जाए मेरा घर मेरा देश!
सुना है आसमान या बहुत ऊँचाई
पर से सब चीज़ें साफ़-साफ़ दिखाई देतीं हैं
वहीं कहीं किसी कोने में होगा मेरा घर
मैं ढ़ूँढ़ता हूँ अपना देश अपना गाँव
अपना घर!
लेकिन वो कहीं दिखाई नहीं देते
फिर ज़ेहन में याद आता है कि ये तो
दूसरा मुल्क है!
और मैं सच्चाई की ज़मीन पर उतर आता हूँ
तब बहुत देर तक रोता हूँ
सचमुच मेरा दिल बैठ जाता है
लगता है उस समय सब काम-धाम छोड़कर
तुरंत लौट जाऊँ देश,
वहाँ से ट्रेन पकड़कर सीधे
लौट जाऊँ अपने घर
मन हरहराने लगता है
दिल की धड़कनें बैठने लगती हैं
पसीने से तरबतर हो जाता हूँ!
मैं उदास हो जाता हूँ
मैं रोने लगता हूँ, छोटे बच्चे की तरह
कुछ देर रोता हूँ फिर काम
पर लग जाता हूँ
शुरू-शुरू में जब
गया था तो महीनों खाना नहीं खाया गया था
इसलिए अक्सर सोचता हूँ
कि अब लौटूँगा ही नहीं अपने घर
भूल जाऊँगा अपने घर को
ऐसा सोचकर ही गला फिर से रुँधने लगता है!
और मैं और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगाता हूँ!
पेट चंडाल है
पेट के लिए ही बार-बार जाता हूँ
मेरे आसपास जो लोग काम करते हैंं
वो सब चेहरे मोहरे से मेरी तरह
ही लगते हैं
सबके चेहरे पर परेशानियों की
एक महीन लेकिन स्पष्ट
लकीर है!
जितनी बार घर लौटता हूँ
उतनी बार मैं छूट जाता हूँ
पीछे मुड़कर घर को देखने का साहस
नहीं जुटा पाता . . .
आँखें भीगने लगतीं हैं . . .
हिचकियाँ बँध जाती हैं
सोचता हूँ किसके भरोसे मैं
घर, पत्नी और बच्चों को
छोड़कर जा रहा हूँ
घर मुझे अंकवार लेता है!
जितना लौटने की कोशिश करता हूँ
उतना ही छूटता चला जाता हूँ!
स्मृतियों में घर का विलोपन नहीं हो पाता!
जब स्टेशन ट्रेन पकड़ने जाता हूँ
तो सोचता हूँ कोई बहाना
कि मैं याद करूँ कोई ज़रूरी चीज़
जिसको लाने के बहाने से ही घर लौट सकूँ!
घर से लौटना बहुत मुश्किल होता है, मेरे लिए!
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