अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

घर पर सब कैसे हैं! 

 

मैं दिल्ली जैसे महानगर 
में जाना चाहता हूँ। 
और भी 
बहुत सारे महानगरों में 
मुंबई नहीं बंबई तब का बंबई
कोलकाता नहीं कलकत्ता पुराना कलकत्ता
चेन्नई नहीं मद्रास पुराना वाला मद्रास 
और मिलना चाहता हूँ 
अपने ही तरह के सीधे-साधे 
मनई से जो निपट देहाती हो 
जो, किसी अजनबी को 
भी देखते ही गर्म जोशी से मिले!
 
झपट कर छीन ले झोला, 
बैग, या थैला
बड़े अधिकार से 
और बिना औपचारिकता के 
पकड़ ले हाथ और खींच कर 
ले जाये रिक्शे तक कि ये 
हमारे शहर में पहली बार आए 
हैं . . . मेहमान हैं हमारे! 
इन्हें मेरे घर पर ले चलो 
ख़बरदार किराया इनसे मत लेना 
मैं दे रहा हूँ . . . 
 
जिसे पता हो बड़े शहर की 
तकलीफ़ें, फ़ाक़ाकशी के दिन . . .
सर्दियों में फ़ुटपाथ पर की ठंड 
गर्मियों की तपती हुई सड़क 
एक कुरता, एक लुँगी . . .
एक हवाई चप्पल, एक गमछा।
एक बीड़ी का बंडल जब 
बात का छोर टूटने लगे तो 
वो लाल चाय बनाने में जुट जाये 
अपने धुँआए स्टोव पर सस्पेन में 
एक बीड़ी जलाकर सामने से दे 
और पूछे एक सवाल कि घर 
में सब कैसे हैं?
इधर शहर कैसे आना हुआ?
अच्छा अम्मा बीमार हैं कोई बात नहीं
तुम जितने दिन चाहो यहाँ रह सकते हो 
आराम से इलाज करवाओ 
खाने-पीने की भी चिंता मत करो 
मेरे पास जो थोड़े बहुत पैसे हैं 
उनसे काम चलाओ।
घर पर ख़त मत लिखना 
नहीं फोन भी नहीं करना है
सब लोग परेशान हो जायेंगे 
क्या जाॅब के सिलसिले में आये हो 
ये भी अच्छा रहा हमारे गाँव का कोई 
लड़का अफ़सर बना है 
और वो तुम हो इससे बड़ी बात और 
ख़ुशी मेरे लिए 
भला और क्या होगी! 
चलो, मैं अफ़सर ना बन सका 
अपना ही कोई भाई बना है 
समझो मैं ही आज अफ़सर बन गया! 
मेरी चिर-संचित अभिलाषा आज पूरी हो गई 
कल ही जाकर देवी स्थान में बताशा चढ़ाऊँगा 
मैं भी, समस्तीपुर से नौकरी की तलाश में 
यहाँ आया था 
नौकरी तो ना मिली बेलदारी का काम करने लगा
ख़ैर; मैं बहुत ख़ुश हूँ 
वो, इस बात की भनक भी ना लगने दे
कि कितने दिन वो जब शहर में नया-नया आया था 
तो महीनों भूखा सोया, 
बाहरी, भीतरी, लोकल और बाहर वाले की बीच 
की खाई को पाटते-पाटते कितनी लाठियाँ खाईं
आज भी पीठ पर नीले निशान हैं 
पर फिर भी टिका रहा, 
दिल्ली, बंबई, कलकत्ता और मद्रास में 
गँवई आदमी छुपा जाए अपनी मुस्कुराहट में अपने शहर
में रहने की दास्तान! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

हास्य-व्यंग्य कविता

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं