अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सॉरी दीदी . . .

मालती ने अपने भाई, सुभाष को उलाहना देते हुए कहा, “तुम को तो क्षण भर का भी समय नहीं रहता होगा, कि अपनी बहन और, अपने भाँजे की कभी ख़ैर-ख़्वाही ही पूछ लो। उस दिन जब मेरे बेटे ने प्रतियोगिता परीक्षा में टॉप किया तो, सोशल मीडिया पर बधाइयों का ताँता लग गया, लेकिन, तुम्हें शायद ख़ुशी नहीं हुई, होगी। तुम तो . . . सोशल मीडिया पर भी बहुत एक्टिव रहते हो। फिर भी . . . कभी तुमने फोन भी ना किया . . . कि अपनी बहन और भाँजे का हाल ही ले लेते।” 

रसगुल्ले की प्लेट से एक रसगुल्ला उठाकर अपने मुँह में रखते हुए, सुभाष मज़ाकिया अंदाज़ में बोला , “नहीं दीदी, ऐसी कोई बात नहीं है। बस यूँ ही याद नहीं रहा, इसलिए फोन नहीं कर पाया, सॉरी दीदी!” सुभाष बात को टालने की ग़रज़ से बोला। 

मालती देवी फिर उसी रौ में बोली, “आख़िर, अपनी जाति-बिरादरी का नाम प्रभाकर ने रौशन किया है। अब तक हमारी जाति में ऐसा मुक़ाम बहुत कम लोगों ने हासिल किया है। मुझे गर्व है अपने बेटे पर . . .!”

आख़िर, सुभाष से भी ना रहा गया। वो भी पहलू बदलते हुए बोला, “हम किस बात का घमंड करें दीदी। इस बात का कि हमारा भाँजे, प्रभाकर ने लॉ की परीक्षा टॉप क्लास में पास कर ली है। देखियेगा, हमारा यही प्रभाकर, जब प्रैक्टिस करने लगेगा; जब कोई अपनी जाति वाला ही अपनी कोई परेशानी लेकर जायेगा, तो वो कैसे कन्नी काटता है? वो, फ़ाइल पर बिना चढ़ावा रखे उसे छूएगा भी नहीं। फिर, किस बात का ग़ौरव . . . हमें क्यों ख़ुश होना चाहिए अपनी जाति पे? दीदी, प्रभाकर अब हमारा रहा ही कहाँ है? वो तो अब एक अलग दुनियाँ का होकर रह गया है, फिर, उसे किस लिए बधाई, और, शुभकामनाएँ दी जाएँ अपने ही लोगों का ख़ून चूसने के लिए। आम-आदमी, जब आदमी से बाबू बनता है, तो उसके, और उसके बाबूपन के बीच एक महीन रेखा खिंच जाती है, सीमा के इस पार आम आदमी होता है, और उस पार बाबू। आम-आदमी से बाबू बनते हुए उसे पता ही नहीं चलता, कि कब वो अपने साथ वालों को बहुत पीछे छोड़ आया है। सॉरी, दीदी, मैं प्रभाकर को बधाई नहीं दे सकता।” 

अपने, सगे भाई सुभाष के मुँह से ऐसी बात सुनकर मालती देवी को शाॅक-सा लगा। छत पर घूमता हुआ हाईस्पीड पंखे की ठंडी हवा के बावजूद मालती देवी का पेशानी पसीने से तरबतर हो गया।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कहानी

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं