देहरी लाँघती स्त्रियाँ
काव्य साहित्य | कविता महेश कुमार केशरी15 Sep 2025 (अंक: 284, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
देहरी लाँघती स्त्रियाँ
लाँघती तो हैं देहरी
लेकिन देहरी लाँघते हुए भी
छूट जाती हैं, घर के भीतर बहुत
भीतर कोनों अंतरों में जहाँ से आती थी
कभी उनकी खनखनाती हुई हँसी
उनके भीतर छूटने को मापा नहीं जा सकता
ठीक-ठीक
लेकिन माप लें तो जितनी समंदर
की गहराई
जितना आकाश का विस्तार
जितनी आदमी की भूख
जितनी मछलियों की प्यास
जितनी फूलों में बसी ख़ुश्बू
जितने इंद्र धनुष में रंग
जितने आसमान में तारे
अनुपात में इनको नापना
एक बेमानी बात होगी
वो देहरी लाँघते हुए भी रची बसी
होती हैं
कोनों-अंतरों में, जाले निकालती
घर आँगन में झाड़ू बुहारती
बर्तनों के बजने की खनखनाहट में
कभी धान फटकती
कभी माँड़ पसाती
कभी बच्चों को लोरी सुनाती
ठहरी हुई धूप में
गर्मियों में अचार बनाती
छत पर कपड़े सुखाती
तुलसी पिंडा में दीया जलाती
इष्ट देव को पूजते हुए
अगरबत्तियाँ दिखाती
भरी उमस वाली दोपहर
में किसी के आसपास
से होकर गुज़रने से होता है
उनके आसपास से गुज़रने
का एहसास
वो परछाईं की तरह होती हैं
हमारे ठीक पीछे-पीछे
चलती हुईं
वक़्त ज़रूरत हमारे लिए एक पैर
पर खड़ी रहतीं हैं ये स्त्रियाँ
ठंड में स्वेटर की तरह होती हैं
गर्मी में शरबत की तरह
देहरी लाँघती स्त्रियाँ
परीकथाओं की तरह होती हैं
लोक-कथाओं और मिथकों में
रची-बसी
जिसे हम अपनी रंध्रों में कहीं
भीतर बहुत भीतर पाते हैं!
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