पीठ पर बेटियांँ . . .
काव्य साहित्य | कविता महेश कुमार केशरी15 Oct 2022 (अंक: 215, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
काकी अक़्सर कहा करतीं
कि बाप के पीठ पर बेटे ही
होते हैं और बेटे ही
बनते हैं बाप का सहारा
बेटियांँ बाप के पीठ पर नहीं
होतीं
और, ना ही वो बाद
में बनतीं हैं बाप का सहारा
कि, बहू मुझे अबकी बेटा ही
चाहिए
इसलिए भी कि वंश
आगे चल सके
और, थके-हारे, जले-भुने
मर-मर के खेतों में काम
करने वाले बाप का सहारा
आख़िर बेटे ही तो बनेंगे
बेटियांँ, फूल सी कोमल और
सुकुमारी होतीं हैं, कहांँ-कहांँ
बाप के साथ खेतों में जलेंगीं
फिर, बेटियांँ पराया धन
भी तो होती हैं
वो, बाप के पीठ पर नहीं होतीं
बाप के सीने में कील की तरह
होतीं हैं!
कई देवी-थानों में परसादी
से लेकर, मुर्गा-मुर्गी, खस्सी-
पठरु गछती थीं काकी
छुटकु के लिए
कुछ, सालों बाद छुटकु आया
काकी, नाचतीं-झूमतीं इतरातीं
मांँ की बलैयाँ लेतीं,
मांँ को अशीषतीं
दूधो नहाओ पूतो-फलो
यहांँ भी पूत ही फल रहे थें
और, बेटियांँ हो रहीं थीं होम
बहुत सालों बाद जब, छुटकु
चला गया, परदेश, पढ़ने
और, काकी पड़ीं ख़ूब बीमार
इतना बीमार, कि अपने से उठ
भी ना पाती थीं
और अस्पताल था गांँव से कोसों
दूर
तब, मैंने, अपनी पीठ पर
टांँग कर पहुँचाया था
उनको अस्पताल
जब, काकी ठीक हो गईं
तो, काकी मुझे अशीषतीं
आंँखों से झरते आंँसू
पोछतीं जातीं . . .
पश्चाताप के आंँसू आंँखों से
मोतियों की तरह झरते जाते
इस, बात का अफ़सोस
काकी को आजीवन रहा
कभी-कभी आत्मग्लानि से
भरकर मेरे बालों में हाथ
फेरतीं
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