पिता दु:ख को समझते थे!
काव्य साहित्य | कविता महेश कुमार केशरी15 Jun 2022 (अंक: 207, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
पिता गाँव जाते तो पुराने समय में
घोड़ेगाड़ी का चलन था।
स्टेशन के बाहर प्राय: मैं इक्के
वाले और उसके साथ खड़े घोड़े को देखता
लोग इक्के से स्टेशन से अपने गाँव
तक आते-जाते थे
इन घोड़ों की आँखें किचियाई होतीं
घोड़वान के चेहरे पर हवाइयाँ उड़तीं
पिताजी के अलावे अन्य सवारियों को देखकर ही
इक्के वाले की आँखें ख़ुशी से चमकने लगतीं।
घोड़े को लगता कि आज उसे ख़ूब
हरी घास खाने को मिलेगी।
इक्के वाला हफ़्तों से उपवास चूल्हे
में आग जलती देखता
उसकी आँखों में नूमायाँ
हो जाती रोटी और तरकारी
ज़रूर उसने आज किसी भले आदमी
का चेहरा देखा होगा
तभी तो दिख रही हैं सवारियाँ
पिता साधारण इंसान थे
मरियल घोड़े पर सवार होना
उन्हें, यातना सा लगता
लगता उन्हें सश्रम कारावास
की सज़ा मिल रही है
वो, परिवार के सारे लोगों को
इक्के पर बैठने को कहते
लेकिन, वो ख़ुद घोड़े के बग़ल से पैदल-पैदल
ही चलते
माँ, बार-बार खीजती कि कैसा भोंभड़ है
मेरा बाप
लेकिन, पिता घोड़े के दु:ख को समझते थे
तभी तो समझते थे, वो रिक्शेवाले के दु:ख को भी
परिवार के सारे लोग रिक्शे पर चढ़ते
लेकिन पिता पैदल ही रिक्शे
के साथ चलते . . .
चाहे दूरी जितनी लंबी हो
कभी-कभी दु:ख को समझने के लिये
घोड़ा या इक्के वाला नहीं होना पड़ता
बस हमें नज़रों को थोड़ा सीधा करने
की ज़रूरत होती है।
लोगों का दु:ख हमारे साथ-साथ
चल रहा होता है।
ठीक हमारी परछाईं की तरह ही
लोगों का भोंभड़ या मूर्ख संबोधन
पिता को कभी विचलित नहीं कर सका था।
वो जानते थे कि मूर्ख होने का अर्थ
अगर संवेदनहीन होना नहीं है
तो, वो मूर्ख ही ठीक हैं
मूर्ख आदमी कहाँ जानता है
दुनिया के दाँव पेंच!
इससे पिता को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था
लोग पिता के बारे में तरह-तरह की बातें
करते
कहते पिता सनकी हैं
लेकिन, मैं हमेशा यही सोचता हूँ
कि पिता, घोड़े और रिक्शेवाले का दु:ख
समझते थे।
मुझे ये भी लगता है
कि हर आदमी को जानवर और आदमी के दु:खों को
पढ़ लेना चाहिये या कि समझ लेना चाहिये
जो इस दुनिया में सबसे ज़्यादा दु:खी हैं।
पिता समझते थे या सोचते थे
घोड़े की हरी घास की उपलब्धता के बारे में
इक्के वाले के बिना धु़ँआये चूल्हे के बारे में
हमें भी समझना चाहिये सबके दु:खों को
ताकि हम बेहतर इंसान बन सकें।
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