अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

बेहतर बहुत बेहतर . . . 

 

आदमी शुरू से हँसता आया है 
इंसान के काम पे
उसकी तरक़्क़ी पे 
सालों पहले की तरह 
उसका आज भी आदमी पर हँसना 
जारी है
 
एक ने कहा समुद्र 
देवता है
इसको लाँघा तो जात से
बाहर कर दिये जाओगे
 
लेकिन; आदमी ने लाँघा
समुद्र और पा लिया
शिक्षा, तकनीक और ज्ञान को
 
शिक्षा पाकर आदमी का ज्ञान 
समृद्ध हुआ . . . 
 
इस तरह एक बार एक नाविक 
देश खोजने निकला
उसको भी लोगों ने उलझाया
यह कहकर कि उस देश के लोग 
राक्षस होते हैं . . .
तुम्हें खा जायेंगें
 
लेकिन, आदमी ने खोज
निकाले
कई-कई देश
 
आदमी ने कढ़ाई को देखा और 
बनायी 
नाव
दूसरे आदमी ने कहा नाव 
लकड़ी की है
और बहुत भारी है
पानी पर कैसे तैरेगी . . .? 
देख लेना तुम्हारी नाव डूब जायेगी! 
ख़ैर 
 
एक बार आदमी ने पक्षी 
को देखकर बनाया हवाई जहाज़ 
आदमी के ऊपर आदमी हँसा
लोहे का जहाज़ भला 
कभी उड़ा है . . .? 
बेवकूफ़ . . . 
 
इस आदमी ने बनाये कई-कई बड़ी ऊँची 
अट्टालिकाएँ, बड़े-बड़े 
गगन चुँबी महल, बड़ी-बड़ी इमारतें 
आदमी फिर हँसा आदमी पर 
बोला देखना तुम्हारा ये महल 
ताश के पत्तों की तरह ढह जायेगा! 
 
बौना आदमी जब पहुँचा 
चाँद की सतह पर खोजने निकला 
मँगल पर जीवन 
तब भी आदमी ने 
आदमी के ठिगने और
उसके बौनेपन पर हँसा
  
इस तरह आदमी पाताल भी 
नाप आया . . . 
और जब चक्कर लगाकर 
लौट आया पूरी दुनिया का 
तो ये किंवदंती भी झूठी निकली 
कि धरती 
शेषनाग के फन पर टिकी है! 
 
इस तरह आदमी ने जब-जब 
आविष्कार या क्रांति करने की सोची 
या कुछ नया करने की उम्मीद पाली
आदमी ने आदमी को हिक़ारत और 
उपेक्षा से देखा
उस पर हँसा बहुत 
देर तक
 
लेकिन; बदलाव या क्रांति ने 
आदमी के हँसी की कभी परवाह नहीं की
वो लगातार करता रहा उपेक्षा 
आदमी की उस हँसी की . . . 
और, बनाया अपने आत्मविश्वास के सहारे 
दुनिया को 
पहले से बेहतर बहुत बेहतर!

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कहानी

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं