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नेताजी की ग़लती

बाँके लाल हमारे क़स्बे के लंपट-ल‌फाड़ू और टुच्चे क़िस्म के नेता थे। इधर हाल में उनका नाम तरह-तरह के सेक्स-स्कैंडलों में आया था। वे हवाला से‌ लेकर तमाम तरह के‌ अपराधों के लिए थाने में नाम-ज़द‌ थे। इधर चुनावी मौसम ने उन्हें एक बार फिर से याद‌ दिलाया की वे इस क़स्बे के क़स्बा-ए-बादशाह-सिकंदर‌ हैं। और उन्हें चुनाव भी लड़ना है। लेकिन‌ उनकी छवि इतनी धूमिल हो चुकी थी‌ कि राजनीति के चाणक्यों ने ये घोषणा कर दी थी कि यदि आप चुनाव ना ही लड़ें तो बेहतर होगा। क्योंकि आप हर हाल में चुनाव हार जायेंगे‌। 

इस-बात को लेकर घं‌टों मा‌था-पच्ची होती रही कि आ‌ख़िर‌‌ क्या किया जाये‌? और‌ उड़ते-उड़ते ये बात शहर की एक मशहूर तवायफ़ मुन्नी बाई तक पहुँची। मुन्नी ने जब बांकेलाल की परेशानी सुनी। तो फिस्स से हँस पड़ी। बाँकेलाल‌ का दिमाग़ भन्ना गया—मुई कैसी कम अक़्ल की बेवक़ूफ़ औरत है। मुन्नी ने तब अपना राज़ फ़ाश‌ किया . . . कि ‌हुज़ूर को याद नहीं कि आपने क़रीब तीस-पैंतीस साल पहले एक ग़लती ‌की थी। आप ‌ हमारे‌ कोठे पर जब आते थे तो आपसे एक ग़लती हो गई थी। इधर कोठे से ऐसा नाता टूटा और इस शहर‌ से कि बरसों बाद आज जब हुज़ूर की तकलीफ़ सुनी तो रहा नहीं गया। आपसे मुझे एक लड़का रह गया था। आज से तीस-पैंतीस साल‌ पहले। वो‌ गबरू और जवान—आज पट्ठा और पहलवान हो गया है। ना हो तो इस बार‌ का चुनावी दंगल‌ आपके पहलवान को ही लड़वाया जाये। 

बड़े दिनों से कुम्हलाया हुआ बाँके लाल का चेहरा फिर से नवयुवकों की तरह खिल गया। लेकिन तभी उनके चेहरे पर उदासी फैल‌ गई। वे‌ मुन्नीबाई से बोले, “लेकिन उसे नेता मानेगा कौन?” 

मुन्नी इस बार फिर मुस्कुराई, “बस इतनी सी बात। अरे अभी चुनाव‌ में कुछ महीने का वक़्त है। तब तक शहर के सारे प्रीति-भोजों, मृत्यु-भोजों और सार्वजनिक कायक्रमों में उसे भेजिये। उद्घाटन से लेकर‌ लोगों की मरनी-हरनी तक। खेल-आयोजनों का फीता कटवाइये। ना हो तो कोई क्रिकेट का कोई बड़ा टूर्नामेंट ही करवा लीजिए। दो‌-पाँच लाख ख़र्च कर दीजिए। फिर, तो जनता से वसूल‌ ही लेना है। जनता को लगना चाहिए कि आप उसके सबसे बड़े शुभेच्छु और हितचिंतक हैं। जनता कुछ दिनों में सब भूल‌ जाती है।”

और, स‌‌‌चमुच में नेताजी की ग़लती ने उन्हें चुनाव‌ जितवा दिया था। और नेताजी अपनी ग़लती पर मन ही मन मुस्कुरा रहे थे। 

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