तबसे आदमी भी पेड़़ होना चाहता है!
काव्य साहित्य | कविता महेश कुमार केशरी15 Sep 2022 (अंक: 213, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
मैं उस हरकारे के बच्चों को भी उसी
समय से देख रहा था
जिस समय से मैं उस बरगद
के पेड़़ को देखा करता था
पेड़़ के आसपास और भी लतरें थीं।
पेड़़ की फुनगियों के बीच से
कई कोंपलें फूटीं और
पेड़़ की कोंपलों ने धीरे-धीरे
धीरे बड़ा होना शुरू किया।
हरकारे के चार बच्चे थे।
हरकारे के बच्चे ज़मींदारों
के यहाँ काम करते थे
मैं देख रहा था पेड़़ को और
उसके साथ खिलीं कोंपलों
को बढ़ते।
हरकारे के बच्चों और
पेड़़ को मैंने इंच-इंच बढ़ते
देखा . . .
इस बीच पेड़़ के आसपास
का समय भी बीतता रहा।
कोंपलें भी धीरे-धीरे लतरों में बदलीं
फिर लतरें तना बन गईं!
और, पेड़़ के आस-पास खड़े
हो गये वो
पेड़़ के रक्षार्थ!
साथ-साथ जन्मीं और भी कोंपलें
पहले लतर बनीं फिर तना
और फिर हरकारे के बच्चों की तरह
वो भी फैल गईं
अनंत दिशाओं में!
लतरों, ने बारिश झेली, धूप भी
लतरें, ठिठुरती रहीं ठंड में
तब भी साथ-साथ थीं।
सुख-दु:ख साथ-साथ महसूसा!
लतरों ने वसंत देखा पतझड़ भी!
बड़े होने के बाद हरकारे के बच्चों
ने कभी नहीं पूछा अपने सगे भाइयों
से उनका हाल!
भाइयों ने फिर कभी आँगन
में साथ बैठकर घूप या गर्मी पर
बात नहीं की . . .
समय बीतता रहा
ऋतुएँ, बदलती रहीं
लेकिन, हरकारे के लड़के दु:ख भी अकेले
पी गये . . . दु:ख भी नहीं बाँटा किसी से!
सालों से कभी साथ बैठकर
किसी समस्या का सामाधान
वो खोज नहीं पाये।
फिर, साथ बैठकर कभी नहीं देख पाये
भोर होने के बाद ओस में नहाई हुई फ़सल!
या सुबह का कोई उजास . . .
पता नहीं कितने साल बीत गये।
जब गाँव में काम मिलना बंद हो गया
फिर, वो कहीं कमाने चले गये
दिल्ली या पंजाब . . .
बूढ़ा हरकारा जब मरा तो दाह संस्कार
भी गाँव के लोगों ने किया!
हरकारे के लड़कों ने फिर कभी
पलटकर नहीं देखा गाँव!
हरकारे की मौत से दु:खी होकर
बूढ़ा होता मकान भी एक दिन
ढह कर गिर गया।
लेकिन, तब भी हरकारे के लड़के
नहीं लौटे!
लेकिन, बूढ़े पेड़़ की हिफ़ाज़त में
आज भी खड़े थे युवा पेड़़!
पेड़़ अब अपनी दहलीज़ की
झिलंगी खाट पर
पड़ा रहता।
बूढ़ा, पेड़ चिलम भरकर
पीता . . . और, शेख़ी बघारता गाँव में
कि उसकी ड्योढ़ी . . .बहुत मज़बूत है!
और कि, वो युवा पेड़़ों की हिफ़ाज़त में है!
तब से आदमी भी पेड़़ होना चाहता है!
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