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लोकतंत्र में बाघ, बकरी और सियार होना

हमारे देश में धूल झोंकने की कला बहुत प्राचीन समय से ही रही है। लोकतंत्रिक व्यवस्था में इसे बहुत बल मिला है‌। नेता जनता की आँखों में धूल झोंक रहे हैं। सरकारी स्कूल के टीचर बच्चों और उनके अभिभावकों की आँखों में धूल झोंक रहे हैं। और बाबू सरकारों की आँखों में धूलझोंक रहे हैं।

कोरोनो की तीसरी लहर‌ में इसका नायाब उदाहरण मिला है। बैठना-बिठाना भी एक कला‌ है। लोकतंत्र में ये पैसे के बल पर ज़्यादा होता है। बैठने-‌बिठाने की परंपरा हमारे यहाँ पुरानी रही है।

पोंगा पांडे हमारे बचपन के दोस्त थे। एक-नंबर‌ के छिछोरे। उनकी मोटी खाल गैंडे की तरह जनता की गाढ़ी कमाई खा-खा कर मोटी हो गयी थी। उनके बाप-दादा तक गाँव‌-ज्वार में भैंस दूहते और दूध बेचते हुए अपना जीवन बिताये थे।‌ लेकिन पोंगा पांडे के दिन फिरे और वो कोतवाली में दारोगा नियुक्त हुए। इतनी अकूत संपत्ति उन्होंने इसी दारोगाई से उगाही थी। और‌ उनका कायांतरण गैंडे के तौर पर हुआ था। लेकिन, उनके गैंडे जैसी खाल पर जब हाईकोट का डंडा पड़ा तो, वो तिलमिलाये हुए हमारे पास आये। और, बोले, “यार,आज तो‌ ग़ज़ब हो गया।”

मैंने‌ पूछा, “क्या हुआ भाई?”

बोले, “कल हमको बिठा दया गया।”

हमने कहा, “ये तो‌ बहुत अच्छी बात है। आपका ओहदा बड़ा है। तो लोग आपको बैठने के लिए कहेंगे ही।”

वो झल्ला गये। 

“तुम समझे नहींं यार। मुझे सस्पेंड कर दिया गया है। और बड़े साहब को कारण बताओ नोटिस जा‌री हुआ है!”

मैंने पूछा, “तुमने कोई ग़लती की होगी।”

बोले, “ग़लती घंटा की थी। शहर में धारा 144 लागू थी। और नेताजी ने जनसभा कर दी। करीब दस हज़ार लोग‌‌ जमा होंगे। कल हाई- कोर्ट से हमारे लिए सस्पेंशन का नोटिस आया। और मुझे बिठा दिया गया है।‌ बड़े साहब को अपनी सफ़ाई में जो कहना ‌हो। उसके‌ लिए‌ उन्हें पंद्रह दिनों का समय‌ दिया गया है। और, आज फिर नेताजी की सभा क‌‌हीं और होने वाली है।” 

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